संक्रमण काल के विकल्प नरेन्द्र मोदी


देश की रजनीति राजपुरुषों से विहीन सी हो गई है। यूपीए की प्रमुख सोनिया
गांधी जो कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष भी हैं, अपने दामाद के माध्यम से
जमीनों से 'मोटा माल' बनाने के खेल में लगी हैं। रक्षा सौदों में दलाली
के आरोपी और विभिन्न बड़े-बड़े घोटालों के सूत्रधारों को उनका संरक्षण
जगजाहिर है। उनकी कठपुतली और देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के गुट के
मंत्री जो 'अमेरिकन एजेंट' जैसे दिखते हैं, वे खुले आम घोटालों की
'लूटसंस्कृति' के प्रतिनिधि बन चुके हैं और मनमोहन सिंह उन्हें खुला
संरक्षण दे रहे हैं।
शेयर व वायदा कारोबार के खेल अब व्यापारी नहीं, सरकारी मंत्री व नौकरशाह
खेल रहे हैं। वस्तुओं व जिंसों के दामों के उतार-चढ़ाव का यह खेल
प्रतिदिन जनता को 15-20 हजार करोड़ रुपये की चपत दे देता है। सरकारी
समर्थन से साम्प्रदायिकता, वस्तुओं के दामों व मुद्रास्फीति के समान
बढ़ती जा रही है। इनके बीच आम आदमी की कीमत डॉलर के मुकाबले रुपये की
कीमत जैसी गिरती जा रही है। खेल ऐसा है कि देश की कुल 25-30 प्रतिशत बचत
में आम आदमी का हिस्सा जो कभी 70-80 प्रतिशत के बीच रहता था, अब 20 से 30
प्रतिशत आ गया है। यह चेतावनी की घंटी जैसा ही तो संकेत दे रहा है कि अब
देश की 80 प्रतिशत जनता को कर्ज के जाल में जीवन जीने को अभ्यस्त होना
पड़ेगा। ऐसी अर्थव्यवस्था का नक्शा खड़ा हो चुका है जिसमें खेती-किसानी
बेमानी होती जायेगी और परिवार नाम की संस्था बिखर जायेगी। ऐसे में देश की
25-30 करोड़ बेरोजगार युवा शक्ति को मुफलिसी के दिनों में परिवार का
संरक्षण मिलना संभव ही नहीं हो पायेगा। देश की अर्थव्यवस्था को दुनिया की
अर्थव्यवस्था से जोडऩे की जिद कांग्रेस पार्टी व भाजपा दोनों की ही है।
यह हमारी भावी पीढिय़ों के लिए घातक हो चुकी है किन्तु इसे पलटने का
आत्मबल किसी भी राजनीतिक दल के पास नहीं है।
समय नये विकल्पों पर सोचने व आजमाने का है। क्षेत्रीय दल चुनावों के
उपरान्त तीसरा मोर्चा बनाने की कवायद में हैंै। यद्यपि वे कांग्रेस
पार्टी के समर्थन से ही सत्ता में आ पायेंगे। स्वाभाविक है कि अगर ऐसा
होता है तो यह गठजोड़ एक से दो साल तक ही चल पायेगा और कांग्रेस पार्टी
देश के बिगड़ते हालातों का ठीकरा तीसरे मोर्चे के दलों पर फोड़ पुन:
सत्ता की वापसी की राह देखना चाहेगी।
व्यवस्था परिवर्तन के तथाकथित आंदोलन खड़े होने से पूर्व ही बिखर चुके
हैं और नये विकल्प और उनका राष्ट्रवादी स्वरूप अभी दूर की कौड़ी ही है।
अगर यह संभव न हुआ तो इसके लिए अब लंबे समय तक और संघर्ष होना तय है।
समय संक्रमण काल का है। देश में चौतरफा अराजकता और कुशासन से आक्रोश एवं
निराशा की स्थिति है। जनता परिवर्तन चाहती है। वह सुशासन और पारदर्शिता
के साथ जनकेन्द्रित ऐसा विकल्प खोजना चाह रही है जो भारतीयता और भारतीय
हितों को प्राथमिकता दे सके। स्वाभाविक रूप से जनआकांक्षा, अति
अन्तर्राष्ट्रीयवाद व कारपोरेटवाद के विरुद्ध तो है ही, फैल रही
अपसंस्कृति के विरुद्ध भी है। देश के बिगड़ते आर्थिक माहौल व सांप्रदायिक
वैमनस्य ने जहां सामाजिक समरसता को समाप्त किया है वहीं जीवन संघर्ष को
बढ़ा दिया है। अब सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी की बन चुकी है जो युवा होते
इस देश को गृह युद्ध व अराजकता में धकेलने के लिए पर्याप्त है।
किसी चौथे सशक्त विकल्प के अभाव में भाजपा, नरेन्द्र मोदी एवं एनडीए एक
संक्रमणकालीन विकल्प के रूप में सामने उभर चुके हैं। व्यवस्था परिवर्तन
के आंदोलनों ने कांग्रेस पार्टी के साथ-साथ भाजपा के चिंतन की सीमायें
जनता के सामने रख दी हैं। जनता को जिस वैकल्पिक व्यवस्था अथवा व्यवस्था
परिवर्तन के सपनों को हाल ही में दिखाया गया है, उनसे भाजपा भी खासी दूर
ही है। एक अजीब सी टिप्पणी बुद्धिजीवी, पत्रकार व आमजन सभी कर रहे हैं कि
भाजपा भी कांग्रेस जैसी ही है और भाजपा के सत्ता में आने से भी कुछ बदलने
वाला नहीं है। मोदी भी बाजार, उपभोक्तावाद व कारपोरेटवाद के समर्थक ही
हैं। किन्तु प्रश्न मात्र नीतियों का नहीं, नीयत का भी है। एक आदर्श एवं
यूटोपिया की तलाश में हम अगर भाजपा को खारिज करते हैं तो यूपीए अथवा
यूपीए के समर्थन से तीसरा मोर्चा सत्ता में आ सकता है। ऐसे में यह कथ्य
एक सनक ही माना जायेगा कि या तो देश में एक आदर्श व्यवस्था लेकर कोई आकाश
से देवता अवतरित हो अन्यथा हम यूपीए के नारकीय कुशासन में ही खुश हैं,
मगर भाजपा व एनडीए बिल्कुल भी स्वीकार्य नहीं।
नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा और एनडीए अगर सख्त प्रशासन एवं
पारदर्शी व्यवस्था के साथ बाजारवादी व्यवस्था को ही आगे बढ़ाना चाहते हैं
तो भी उन्हें एक मौका मिलना चाहिए। जागरूक, संवेदनशील, समाजवादोन्मुख व
व्यवस्था परिवर्तन के समर्थक लोगों को जो 'मौलिक भारत' चाहिए, वह एक
क्रमिक प्रक्रिया से ही बन सकता है और उन्हें मोदी के आगमन को उसकी दिशा
में बढ़ते हुए एक कदम के रूप में लेना चाहिए, जो लोकतंत्र व कानून के
शासन में विश्वास रखने वाला और 'राष्ट्र प्रथम' की मानसिकता से ओत-प्रोत
है। यह जरूर है कि मोदी की आलोचना, समीक्षा व विश्लेषण निरंतर किया जाना
चाहिए और वैकल्पिक मोर्चे की नीतियों व ढांचे का विस्तार भी समानान्तर
होते रहना चाहिए।
हां, मोदी को वह भूल नहीं करनी चाहिए जो अटल बिहारी वाजपेयी ने भाजपा को
कांग्रेस पार्टी का 'भगवा संस्करण' कह कर की थी। मोदी को भाजपा को भगवा
से उठाकर भारतीयता, घोर बाजारवाद से उठाकर समाजवादोन्मुखी बाजारवाद तक
लाने की कोशिश करते दिखना चाहिए। ऐसे में उनकी स्वीकार्यता बढ़ती ही
जायेगी। शेष कार्य व्यवस्था परिवर्तन के लिए लगी शक्तियां करती जायेंगी।
ऐसे में मैं कह सकता हूं 'स्वागत है नरेन्द्र मोदी'।
अनुज अग्रवाल
www.dialogueindia.in

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