मी लार्ड यह बात कुछ हज़म नहीं हुई ! -#अनुज अग्रवाल
अरुणाचल प्रदेश में कांग्रेस सरकार की बहाली के निर्णय में माननीय उच्चतम न्यायालय ने कहा कि
" राज्यपाल का आचरण न सिर्फ निष्पक्ष होना चाहिए बल्कि निष्पक्ष दिखना भी चाहिए "
साथ ही यह भी कहा -
" राज्यपालों को राजनीतिक दलों की लड़ाई से खुद को दूर रखना चाहिए"
किंतू जिस प्रकार का आचरण निर्णय और व्यवहार न्यायपालिका कर रही है उससे ऊपर दिए गए कोड्स में राज्यपाल की जगह न्यायपालिका शब्द रख दिया जाए तो आम जनता को ज्यादा ठीक लगेगा।
कोर्ट परिसरों में रोज होती लूट, बिकते न्याय और 3 करोड़ लंबित मामलो के बीच जनता को भारत की न्याय व्यवस्था का चरित्र पता है। जिसका भी पडोसी न्यायाधीश, वकील या कोर्ट का कर्मचारी है उसे इस बाजार आधरित न्याय तंत्र का नंगा सच पता है। किंतू माननीय न्यायाधीश न तो अपने गिरेबां में झांकते हें और न ही अपने आँगन की सफाई करते हें। जनता को पता है कि कोलॉजियम, उत्तर प्रदेश के लोकायुक्त मामले और फिर उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन के बीच कैसे न्यायपालिका ने बिना किसी संवेधानिक प्रावधान के गैरकानूनी तरीक़ों से निर्णय दिए। कैसे और किन दबाबो में याकूब मेनन की फांसी की सजा रोकने के लिए रातों में कोर्ट खुलते हें, कभी जयललिता, कभी माया, कभी मुलायम, कभी सोनिया और राहुल तो कभी सलमान, संजय दत्त, अंसल बंधुओ, सहारा श्री आदि के लिए इंसाफ के पलड़े झुक जाते हें, यह सब जनता को पता है। जब वकील शांतिभूषण दर्जन भर पूर्व न्यायाधीशो के करोडो अरबो के भ्रष्टाचार के खेल हलफनामा देकर उच्चतम न्यायालय में खोलते हें, तब भी माननीय मिलार्डो की चुप्पी बहुत कुछ कह जाती है। फिलहाल जिन न्यायाधीशो की नियुक्ति उच्च और उच्चतम न्यायालयो में किये जाने की प्रक्रिया चल रही है उसमे कैसे कैसे गंदे खेल और सौदेबाजी की जा रही है इसकी खबरे भी जनता तक छन छन कर आ रही हें। क्या इन सब नियुक्तियों में निष्पक्षता और पारदर्शी तरीके से चयन के लिए निर्धारित मापदंडों को पूरा किया जा रहा है? क्यों न्यायायिक नियुक्ति विधेयक को संबिधान के विरुद्ध कहा गया और संबिधान में वर्णित न्यायिक सेवाओं की बहाली नहीं की जा रही है? सच तो यह है कि देश के लिए यह गहन अंधकार का युग है जब उसे न्याय मिलने की संभावनाएं न्यूनतम हें। न्याय अब उद्योग बन चूका है और न्यायपालिका उद्योगपति। सबसे दुःखद यह कि यह ब्रिटिश न्यायपालिका का विकृत रूप बन चुकी है। न तो इसका भारतीयकरण किया गया और न ही भारत तत्व का समावेश। अंग्रेजी भाषा, विद्रूप शैली और नोटंकी जैसी पोशाकों के बीच खुद का मजाक उड़वाती जोकरों की टोली।
#अनुजअग्रवाल, संपादक, डायलॉग इंडिया एवं महासचिव, मौलिक भारत।
अरुणाचल प्रदेश में कांग्रेस सरकार की बहाली के निर्णय में माननीय उच्चतम न्यायालय ने कहा कि
" राज्यपाल का आचरण न सिर्फ निष्पक्ष होना चाहिए बल्कि निष्पक्ष दिखना भी चाहिए "
साथ ही यह भी कहा -
" राज्यपालों को राजनीतिक दलों की लड़ाई से खुद को दूर रखना चाहिए"
किंतू जिस प्रकार का आचरण निर्णय और व्यवहार न्यायपालिका कर रही है उससे ऊपर दिए गए कोड्स में राज्यपाल की जगह न्यायपालिका शब्द रख दिया जाए तो आम जनता को ज्यादा ठीक लगेगा।
कोर्ट परिसरों में रोज होती लूट, बिकते न्याय और 3 करोड़ लंबित मामलो के बीच जनता को भारत की न्याय व्यवस्था का चरित्र पता है। जिसका भी पडोसी न्यायाधीश, वकील या कोर्ट का कर्मचारी है उसे इस बाजार आधरित न्याय तंत्र का नंगा सच पता है। किंतू माननीय न्यायाधीश न तो अपने गिरेबां में झांकते हें और न ही अपने आँगन की सफाई करते हें। जनता को पता है कि कोलॉजियम, उत्तर प्रदेश के लोकायुक्त मामले और फिर उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन के बीच कैसे न्यायपालिका ने बिना किसी संवेधानिक प्रावधान के गैरकानूनी तरीक़ों से निर्णय दिए। कैसे और किन दबाबो में याकूब मेनन की फांसी की सजा रोकने के लिए रातों में कोर्ट खुलते हें, कभी जयललिता, कभी माया, कभी मुलायम, कभी सोनिया और राहुल तो कभी सलमान, संजय दत्त, अंसल बंधुओ, सहारा श्री आदि के लिए इंसाफ के पलड़े झुक जाते हें, यह सब जनता को पता है। जब वकील शांतिभूषण दर्जन भर पूर्व न्यायाधीशो के करोडो अरबो के भ्रष्टाचार के खेल हलफनामा देकर उच्चतम न्यायालय में खोलते हें, तब भी माननीय मिलार्डो की चुप्पी बहुत कुछ कह जाती है। फिलहाल जिन न्यायाधीशो की नियुक्ति उच्च और उच्चतम न्यायालयो में किये जाने की प्रक्रिया चल रही है उसमे कैसे कैसे गंदे खेल और सौदेबाजी की जा रही है इसकी खबरे भी जनता तक छन छन कर आ रही हें। क्या इन सब नियुक्तियों में निष्पक्षता और पारदर्शी तरीके से चयन के लिए निर्धारित मापदंडों को पूरा किया जा रहा है? क्यों न्यायायिक नियुक्ति विधेयक को संबिधान के विरुद्ध कहा गया और संबिधान में वर्णित न्यायिक सेवाओं की बहाली नहीं की जा रही है? सच तो यह है कि देश के लिए यह गहन अंधकार का युग है जब उसे न्याय मिलने की संभावनाएं न्यूनतम हें। न्याय अब उद्योग बन चूका है और न्यायपालिका उद्योगपति। सबसे दुःखद यह कि यह ब्रिटिश न्यायपालिका का विकृत रूप बन चुकी है। न तो इसका भारतीयकरण किया गया और न ही भारत तत्व का समावेश। अंग्रेजी भाषा, विद्रूप शैली और नोटंकी जैसी पोशाकों के बीच खुद का मजाक उड़वाती जोकरों की टोली।
#अनुजअग्रवाल, संपादक, डायलॉग इंडिया एवं महासचिव, मौलिक भारत।
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