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Friday, August 22, 2025

राष्ट्रपति के 14 सवालों पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई

राष्ट्रपति के 14 सवालों पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई

 


राष्ट्रपति के 14 सवालों पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हो रही है। सरकार की तरफ से पहले अटर्नी जनरल आर वेंकट रमानी ने अपनी दलीलें कल रखी थी और उसके बाद नंबर आया सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता का जो कि यूनियन गवर्नमेंट की तरफ से अपनी दलीलें देते हुए नजर आ रहे हैं। 3 घंटे के करीब दलीलें दी थी अटर्नी जनरल ने और 5 घंटे के करीब दलीलें दे चुके हैं अटर्नी जनरल। अभी उनकी दलीलें समाप्त नहीं हुई है। लेकिन जिस तरीके से इस पूरी सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट ने आठ दिन की सुनवाई का समय निर्धारित किया है। उसमें चार दिन सरकार के और पक्ष में जो स्टेट बोलेंगे उनके लिए रखे हैं और चार दिन रखे हैं उन स्टेट्स के वकील्स के लिए वकीलों के लिए जो कि इसके विरोध में जो प्रेसिडेंशियल रेफरेंस मांगा गया है उसके विरोध में दलीलें रखेंगे। जबकि होना यह चाहिए था कि कम से कम क्योंकि राष्ट्रपति का यह रेफरेंस है और स्टेट गवर्नमेंट जो राष्ट्रपति के फैसले के पक्ष में है, राज्यपाल के फैसले के पक्ष में है, उन्हें ज्यादा समय मिलना चाहिए था। लेकिन क्या कह सकते हैं? सीजीआई का निर्णय है। पांच जजों की बेंच इस पूरे केस की सुनवाई कर रही है। या फिर कहें कि राष्ट्रपति के 14 सवालों पर जवाब ढूंढने की कोशिश कर रही है। लेकिन अभी तक जो दो दिन की कार्यवाही हुई है उसमें केवल चार जज ही पूछताछ करते हुए या प्रश्न पूछते हुए नजर आ रहे हैं। क्रॉस क्वेश्चन करते हुए नजर आ रहे हैं। पांचवें जो जज हैं अभी तक वो कुछ नहीं बोले हैं।

 सीजीआई बी आर गवई सवाल करते हैं, जस्टिस सूर्यकांत सवाल करते हैं, जस्टिस विक्रमनाथ सवाल करते हैं और जस्टिस पी एस नरसिम्हा सवाल करते हैं। लेकिन 4th जस्टिस अब तक कोई सवाल करते हुए नजर नहीं आ रहे हैं। दूसरी तरफ किस तरीके से अटर्नी जनरल ने तमाम सवाल उठाए थे। सुप्रीम कोर्ट की उस बेंच के अधिकारों के ऊपर। उनका जो अधिकार क्षेत्र है उसके ऊपर उन्होंने जो कुछ अतिक्रमण किया उसके ऊपर और साथ ही साथ यह सवाल भी उन्होंने लंच के बाद उठाया था कि आर्टिकल 142 क्या पूरे संविधान के बाकी अनुच्छेदों को बाईपास करके सुप्रीम कोर्ट को सबसे ज्यादा पावर दे सकता है या दे चुका है? उन्होंने बहुत तल्खी के साथ टिप्पणियां की थी जिसका संदेश साफ तौर पर सुप्रीम कोर्ट की बेंच को चला गया था और जब तुषार मेहता ने अपनी दलीलें शुरू की तो उन्होंने भी शुरुआत उसी अंदाज में की और उन्होंने कहा कि जिस तरीके की बातें की जा रही हैं जिस तरीके से आप लोगों के जेस्चर दिख रहे हैं लिप लिप रीडिंग हम अगर कर पा रहे हैं तो उसके बाद मैं इस मामले को हल्के-फुल्के अंदाज समय शुरू नहीं कर सकता।


 मेहता की मुख्य जो दलील है वो राज्यपाल को जो आर्टिकल 200 के तहत अधिकार मिले हुए हैं और उसके समर्थन में जो संविधान के तमाम अनुच्छेदों का उल्लेख उन्होंने किया है। उस पर उन्होंने बात की और इसी चर्चा में 5 घंटे का समय लग गया। बार-बार बेंच की तरफ से जिस तरीके से क्वेश्चंस हो रहे थे उससे ऐसा लग रहा था कि जो बेंच है जो दो जजों की बेंच ने फैसला लिया था उस फैसले को जस्टिफाई करने की कोशिश कर रही है। इस सुनवाई के दौरान अंत में तुषार मेहता को यह भी कहना पड़ा कि क्या आप यह कहना चाहते हैं कि राज्यपाल के पास जो आर्टिकल 200 के तहत किसी भी विधेयक को रोकने की ताकत मिली हुई है वो अनावश्यक है। संविधान में गैर जरूरी जोड़ी गई है। यानी जिस तरीके के सवालात किए जा रहे थे, जिस अंदाज में सवालात किए जा रहे थे, उसके   बाद यह कहने के लिए सॉललीिसिटर जनरल को मजबूर होना पड़ा। कल जिस तरीके से अटर्नी जनरल ने ये कह दिया था कि सुप्रीम कोर्ट दोबारा से संविधान को लिखना चाहता है कि क्या लिख सकता है जो अधिकार सुप्रीम कोर्ट के दायरे से बाहर है। आज चर्चा के दौरान जब सॉललीिसिटर जनरल ने यह कहा कि एक दिमाग में बात लोगों के यह बैठी हुई है कि जो राज्यपाल होते हैं वो अनइेड है। जबकि राष्ट्रपति इनडायरेक्टली इेड होते हैं। इसलिए लोगों के दिमाग में बहुत सी बातें आती हैं। इस पर सीजीआई ने जवाब दिया कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। राज्यपाल  राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत स्टेट के हेड होते हैं और हम भी तो राष्ट्रपति के द्वारा मनोनीत हैं। इससे पता चलता है कि इतना इन लोगों को याद तो है कि यह राष्ट्रपति के अंडर आते हैं लेकिन अभी उसको खुलकर मानते हुए नजर नहीं आ रहे हैं।

 यह एहसास क्यों नहीं हो पा रहा है कि उनके दो जजों ने राष्ट्रपति का जो अधिकार है उसको कम करने की कोशिश की है। राष्ट्रपति को समय सीमा में जो बांधने की कोशिश की है। वो उनका अधिकार कैसे हो सकता है? जब वह हाई कोर्ट के जज को आदेश नहीं दे सकते तो वह राज्यपाल और राष्ट्रपति को आदेश कैसे दे सकते हैं जो कि एक स्टेट में स्टेट हेड है और दूसरे राष्ट्र के नेशन के हेड हैं। संविधान के अनुसार भारत की जो तीनों ही शक्तियां होती है कार्यपालिका, विधायिका या न्यायपालिका उनके हेड राष्ट्रपति होते हैं। उसी तरीके से राज्यपाल, विधायिका के भी हेड होते हैं। विधायिका का गठन उनको शामिल करके ही माना जाता है। उसी तरीके से कार्यपालिका यानी कि मंत्रिमंडल भी राज्यपाल के समेत ही पूरा माना जाता है। और न्यायपालिका जो राज्यों में भी हाई कोर्ट होते हैं उसमें भी जब कॉलेजियम सिफारिश करता है जजों के नामों की तो वो पहले राज्यपाल की सहमति लेता है। यानी कि वो न्यायपालिका के हेड भी होते हैं स्टेट में। ऐसी स्थिति में फिर कैसे दो जजों की बेंच ने इतना बड़ा ब्लंडर कर दिया। यही सवाल है और इसी को बार-बार अब साबित करने के लिए संवैधानिक उपबंधों को लेने के लिए तुषार मेहता जी ने तमाम ऐसे विवरण दिए जिसमें 1919 का गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट, 1935 का एक्ट, तमाम दूसरे एक्ट और दूसरे राज्यों को लेकर जो फैसले हुए थे उनकी भी चर्चा की। उसमें उन्होंने यह भी बताया कि यह जो दो जजों की बेंच थी इसने पांच और सात जजों की बेंच के फैसलों को भी नजरअंदाज कर दिया था। इस पर सीजीआई ने कहा कि वो दो जजों की बेंच ऐसा कैसे कर  सकती? इससे तो ऐसा लगता है कि यह जो बेंच बैठी हुई है यह पहले से कुछ मन बनाकर बैठी हुई है और इसी चीज को आज सुनवाई के दौरान जजों की तरफ से भी कहा गया कि यह ना समझा जाए कि हम इस मामले में राज्यपाल की शक्तियों पर जो सवाल उठा रहे हैं।

हम किसी प्रीजुडिस से यानी कि पहले से ही कुछ मन बनाकर बैठे हुए हैं। ये केवल हम पूरे मामले को सही तरीके से रखे जाने के लिए सवाल कर रहे हैं। लेकिन जिस तरीके से टाइम अलॉट किया गया है, जिस तरीके से वकीलों की फौज बुलाई गई है अपने समर्थन के लिए और उनको बराबर का समय दिया गया है, उससे तो  भावनाएं साफ जाहिर होती है। हालांकि सुनवाई अभी दो ही दिन की हुई है। इसके अलावा छ दिन की सुनवाई और होनी है। जैसा शेड्यूल बताया गया है उसके हिसाब से अब 21 और 26 तारीख को जो प्रेसिडेंशियल रेफरेंस है उसके पक्ष में सुनवाई होगी और 28 2 39 सितंबर में यह जो सुनवाई होगी उसमें कपिल सिबल सिंह भी के के वेणुगोपाल पी बिल्सन जैसे जो वकील हैं जो एक तरीके से पारदी वाला और आर महादेवन के फैसले का बचाव करते हुए नजर आएंगे उनको समय अलॉट किया गया है। एक दिन का समय इन सब पर काउंटर के लिए 10 सितंबर का रखा गया है। सॉलिसिटर जनरल ने तमाम इसके रेफरेंस दिए। आजादी से पहले के भी रेफरेंस दिए। आजादी के बाद के भी रेफरेंस दिए और संविधान के तमाम अनुच्छेदों को बताने की कोशिश की। लेकिन जिस तरीके से क्रश क्वेश्चनिंग की गई उसकी वजह से आज केवल और केवल आर्टिकल 200 पर ही सवा चार घंटे चर्चा हो पाई जिसमें या तो सॉललीिसिटर जनरल बोले और थोड़ी देर के लिए नवीन किशन कॉल जो कि मध्य प्रदेश स्टेट की तरफ से हैं वो बोले और एक बार इस पूरे मामले में  घुसने की कोशिश की कपिल सिब्बल ने। उन्होंने यह कहने की कोशिश की कि अगर ऐसे किया गया तो फिर आर्टिकल वन का पूरा का पूरा मीनिंग बदल जाएगा। यानी ये जो वकील बैठे हैं वो कार्यवाही में सब कुछ नोट कर रहे हैं कि हमें किस तरीके से इस पूरे मामले को पलटना है।


 राष्ट्रपति ने जो सवाल पूछे हैं उसके बाद जो भी निर्णय आएगा वो देश के भविष्य को तय करेगा। इसलिए हमने कल भी कहा था कि यह जो फैसला है, इसकी जानकारी इसमें क्या-क्या हो रहा है, क्या-क्या मुद्दे रखे जा रहे हैं, क्या-क्या दलीलें दी जा रही है? और सुप्रीम कोर्ट की जो बेंच है, उसका  रिएक्शन क्या है, इसको देश के हर नागरिक को जानना ही चाहिए। इसीलिए हम इस पूरी बहस को आपको जिसज दिन बहस होगी, उसमें जितनी जरूरत पड़ेगी, उतना बड़ा वीडियो बनाकर आपको एक एक बारीकी, बड़े ही सरल शब्दों में समझाने की कोशिश कर रहे हैं। यह मुद्दा महत्वपूर्ण इसलिए है कि अगर इस मुद्दे पर राष्ट्रपति के सवालों का सही तरीके से जवाब ना दिया गया। जस्टिस पारदीवाला और आर महादेवन ने जो कुछ किया था उसको नहीं सुधारा गया तो आप समझ लीजिए कि देश के हालात बहुत ही दयनीय होने वाले हैं। फिर उसके बाद चाहे तमिलनाडु हो, केरल हो, कर्नाटक हो, जहांजहां केंद्र सरकार के  जो विरोधी पार्टियों की सरकारें हैं वो सब के सब इस तरीके के विधेयक लेकर आएंगे और उन विधेयकों को डीम्ड एसेंट मान लिया जाएगा। सॉलिसिटीज ने आज यह सवाल भी उठाया कि जब लेजिस्लेचर की पूर्णता ही राज्यपाल को शामिल होने के बाद होती है तो फिर अगर राज्यपाल साइन नहीं करेगा तो वो विधेयक लेजिस्लेचर से पास कैसे मान लिया जाएगा क्योंकि लेजिस्लेचर का ही हिस्सा होते हैं राज्यपाल और संसद का हिस्सा होते हैं राष्ट्रपति इसलिए तो उनके हस्ताक्षर की जरूरत होती है और आप कह रहे हैं कि उनके हस्ताक्षर की जरूरत नहीं है वो बिना  राज्यपाल के हस्ताक्षर के ही कानून बन जाएगा जो कि संविधान का जो मूल भावना है उसके खिलाफ है औरकि यूनियन गवर्नमेंट की तरफ से अपॉइंट किए जाते हैं राज्यपाल इसलिए उनकी जिम्मेदारी यह भी होती है कि कोई भी ऐसा कानून जो केंद्र सरकार ने बनाया है राज्य सरकार या राज्य की विधानसभा उसके विरोध में या उससे टकराव वाला कानून ना पास करे इसलिए तो यह जो विद करने की या फिर कहें कि अपने पास रोकने की ताकत राज्यपाल को मिली हुई है। आप उसको क्या यह कहना चाहते हैं कि यह बेकार है यह अनावश्यक है और क्या कोर्ट ये डिसाइड कर सकता है? क्या कोर्ट इस हद तक जा सकता है  कि उसकी जो फैसला है वो संवैधानिक अमेंडमेंट की शक्ल ले ले। इन सारी बहसों पर जो प्रतिक्रिया दी गई है जस्टिस बी आर गवई के द्वारा जस्टिस पी एस नरसिम्हा के द्वारा जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस विक्रमनाथ के द्वारा उससे आसार अच्छे नजर नहीं आ रहे हैं। आपको याद होगा कि इन दोनों जजों की ही बेंच ने दो और फैसले दिए थे। एक में इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज को सजा दे दी थी और दूसरे फैसला दिया था जो गलियों में घूमने वाले आवारा कुत्तों को लेकर। लेकिन चीफ जस्टिस ने दोनों ही फैसलों को हस्तक्षेप करके बदलवा दिया या बदल दिया। पर यहां पूरे राष्ट्र


का मुद्दा है। देश के संवैधानिक प्रमुख के अधिकारों का मुद्दा है। यहां राज्य के हेड का मुद्दा है। उसके बावजूद बेंच का जो नजरिया है वो उतना गंभीर नजर नहीं आ रहा है। इसके पीछे वजह ये है कि पहले जो दो मुद्दे थे उनमें से इलाहाबाद हाईकोर्ट वाले केस में इलाहाबाद हाईकोर्ट के 13 जजों ने पत्र लिख दिया था सुप्रीम कोर्ट को और चीफ जस्टिस को कि इनकी बात को ना माना जाए। और दूसरे मुद्दे में पब्लिक सड़क पर आ गई थी। पब्लिक के विरोध के रिएक्शन को देखकर जो चीफ जस्टिस थे उन्होंने फैसला पलट दिया था। लेकिन यह जो मामला है इस पर कोई रिएक्शन देखने को नहीं


मिला है। पब्लिक को समझ में ही नहीं आ रहा है।


आने वाले भविष्य की उस रूपरेखा को नहीं देख पा रहे हैं जो इस फैसले के बाद देश के सामने पैदा हो सकती है। हम शुरुआत से बता रहे हैं कि अगर केजरीवाल जैसा कोई मुख्यमंत्री हो जिसके पास 70% से ज्यादा विधायक हो वो किसी भी तरीके का फैसला पारित कर सकता है और केजरीवाल ने ऐसे फैसले पारित करने की कोशिश भी की थी। केजरीवाल की पार्टी की पंजाब में सरकार है और इस मुद्दे को उठाया भी गया तुषार मेहता जी के द्वारा कि अगर  कोई बॉर्डरिंग स्टेट कुछ ऐसा फैसला ऐसा फैसला ले ले जिससे राष्ट्र की सुरक्षा को खतरा हो या फिर कोई दूसरी स्टेट इंटरनेशनल ट्रेड की किसी ट्रीटी को नकारने का फैसला ले ले तो क्या यह राज्यपाल की बिना सहमति के कानून माना जाएगा तो उस स्थिति में क्या होगा? क्या देश के कूटनीतिक संबंधों पर प्रभाव नहीं पड़ेगा? क्या देश की संप्रभुता पर प्रभाव नहीं पड़ेगा? सुरक्षा पर सवाल नहीं पड़ेगा? तो इस तरीके की चीजें जब इनवॉल्व है तो इसीलिए हम चाहते हैं कि देश की आम जनता भी इस मुद्दे को फॉलो करें। इसको सुने, इसको समझे  जो कुछ सुप्रीम कोर्ट पिछले 10 12 सालों में करने की कोशिश कर रहा है, आप देखेंगे कि कोई ऐसा डिपार्टमेंट नहीं है जिसमें सुप्रीम कोर्ट हस्तक्षेप नहीं कर रहा है। अभी राज्यपालों की नियुक्तियों में इनडायरेक्टली वो घुस चुके हैं। अभी उपराष्ट्रपति के चुनाव में एक पूर्व रिटायर्ड सुप्रीम कोर्ट के जज को नॉमिनेट कर दिया गया है विपक्षी पार्टियों के द्वारा। तो इसमें कोई बड़ी आशंका नहीं है कि जब राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने का सपना पूरा होता हुआ विपक्ष को ना दिखे तो विपक्ष की तरफ से किसी सुप्रीम कोर्ट  के रिटायर्ड जज को ही प्रधानमंत्री कैंडिडेट के तौर पर आगे बढ़ा दिया जाए और जिस तरीके से हमारे तमाम सुप्रीम कोर्ट के जज आजकल भाषण दे रहे हैं उससे ऐसा लगता है कि वो भी इसकी तैयारी करते हुए नजर आ रहे हैं। कुछ रिटायर्ड जज भी अब खूब भाषण दे रहे हैं। चाहे एएस ओका हो, चाहे संजीव खन्ना हो, उनके भाषणों में भी उसी तरीके की सोच साफ नजर आ रही है जिसे वामपंथी और कांग्रेसी सोच कहा जाता है। ये सोच अगर राष्ट्र हित में होती तो किसी को कोई दिक्कत नहीं थी। लेकिन ये सोच प्रगतिशीलता के नाम पर राष्ट्र की सुरक्षा को, राष्ट्र  की संस्कृति को सब कुछ जाम लगाने पर राजी है। क्योंकि वो अपने आप को प्रगतिशील मानते हैं। एक तरफ सीजीआई कहते हैं कि कोई भी कानून देश की संस्कृति, देश की नैतिकता और सामाजिक सुरक्षा के खिलाफ नहीं हो सकता। दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट के तमाम जो फैसले हैं वो नैतिकता के भी खिलाफ है। भारतीय सामाजिक ताने-बाने के भी खिलाफ है। मैं किस-किस फैसले की बात करूं? चंचू साहब के मामले में तो बहुत सारे ऐसे फैसले आए थे जिसमें समलैंगिकों की शादी की बात हो या फिर दूसरे अवैध संबंधों को लेकर उनके जो फैसले थे क्या वो भारतीय सामाजिकता भारतीय  नैतिकता के अनुरूप थे अगर नहीं थे तो सुप्रीम कोर्ट ने उन सबको क्यों दिया यही प्रश्न देश की जनता को समझना है कि इनकी जो मनमानी चल रही है पेंडिंग केसेस पे ये कुछ नहीं करते वैकेंसी पड़ी हुई है 25% से ज्यादा ज्यादा डिस्ट्रिक्ट और सेशन कोर्ट के लेवल पर जुडिशरी में वैकेंसी है। 30% की वैकेंसी है हाई कोर्ट्स के अंदर और अभी तक जैसा देखने को मिल रहा है कि सभी हाई कोर्ट में नियुक्तियां हो रही है। लेकिन सबसे ज्यादा वैकेंसी जहां इलाहाबाद हाई कोर्ट में है। 50% के करीब पद खाली हैं। 80 के करीब जजों के पद खाली है। अभी

तक वहां पिछले चार छ महीने या एक साल में 10 जजेस भी नियुक्त नहीं किए गए हैं। इसके पीछे क्या वजह है? क्या इलाहाबाद हाई कोर्ट को आप अपनी जिम्मेदारी नहीं मानते हैं? और ऐसा सीजीआई खुद बता चुके हैं कि सबसे पहले सीजीआई का जो कॉलेजियम है तीन जजों का तीन सीनियर मोस्ट जजेस का वो नामों की सिफारिश करता है। फिर हाई कोर्ट का जो कॉलेजियम होता है वो उन पर विचार करता है और उन नामों को राज्यपाल को भेजता है। फिर उसके बाद प्रक्रिया आती है कि फिर से वो नाम सुप्रीम कोर्ट आते हैं। यहां से फिर वो कानून मंत्री को जाते हैं, प्रधानमंत्री


को जाते हैं और राष्ट्रपति को जाते हैं। यानी कि हाई कोर्ट्स में भी जो नियुक्ति की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है वह सुप्रीम कोर्ट की ही है। अगर डिफेक्टो देखा जाए तो तो फिर वो क्यों इलाहाबाद हाई कोर्ट में अभी तक नियुक्ति करने से बचते हुए नजर आ रहे हैं। इन सब बातों पर जनता को ध्यान देने की जरूरत है।जिस तरीके से तुषार मेहता साहब ने और कल भी जिस तरीके से तुषार मेहता और अटर्नी जनरल आर वेंकट रमानी ने सुप्रीम कोर्ट के जजों के पुराने गुनाहों को याद दिलाने की  कोशिश की है। उसके बाद ऐसा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट को अपने दो साथियों द्वारा लिए गए उन फैसलों पर सही तरीके से विचार करके राष्ट्रपति के सवालों का जवाब देना चाहिए।



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August 22, 2025 at 09:42AM

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