राष्ट्रपति के 14 सवालों पर आज आठवें दिन की सुनवाई पूरी हो चुकी है। अब कल और एक सुनवाई होनी है। इसमें सरकार की तरफ से काउंटर्स दिए जाएंगे उन बातों के जो विपक्षी पार्टियों के या फिर कहें कि सिबल सिंघवी वेणुगोपाल अरविंद दात गोपाल सुब्रमण्यम निरंजन रेड्डी जैसे वकीलों ने जो दलीलें दी हैं। जिस तरीके से उन्होंने दो जजों की बेंच द्वारा किए गए फैसले को सही ठहराने की कोशिश की है। राष्ट्रपति के रेफरेंस पर ही सवाल उठाने की कोशिश की है और संविधान के आर्टिकल 200ों को समझाने के लिए तमाम इंटरप्रिटेशन और दूसरे आर्टिकल को उसके ऊपर लादने की कोशिश की है। अब उसका जवाब सरकार की तरफ से या फिर कहे अटर्नी जनरल, सॉलिसिटर जनरल हरीश सालवे और दूसरे वकीलों की तरफ से कल दिया जाएगा। आज की जो कार्यवाही थी वह शुरू हुई गोपाल सुब्रमण्यम के दलीलों के द्वारा जो पिछले दिन भी जब सुनवाई हुई थी तीन तारीख को छ तारीख को तो वो दलीलें दे रहे थे और उसके बाद उनकी सुनवाई आज भी जारी रही। उसके बाद नंबर आया के के वेणु गोपाल का। फिर पंजाब सरकार की तरफ से अरविंद दातार कूदे और उसके बाद सीनियर एडवोकेट निरंजन रेड्डी ने अपनी दलीलें रखी।
इन सब की दलीलों में भी वही सब कुछ कहने की कोशिश की गई थी जो पहले कपिल सिबल और सिंघवी कह चुके हैं। यानी कि गोपाल सुब्रमण्यम ने भी तमाम दूसरे आर्टिकल्स का हवाला देकर उनके प्रोविजंस का हवाला देकर जो कुछ आर्टिकल 200 में लिखा हुआ है उसको नकारने की कोशिश की और यह कहने की कोशिश की कि राज्यपाल के पास डिस्क्रेशन जैसा कोई अधिकार ही नहीं है। राज्यपाल को अधिकार नहीं है और राज्यपाल का पूरा का पूरा जो निर्णय होता है वो केवल और केवल जो मंत्री परिषद होती है उसकी सलाह पर निर्भर करता है। यहां गोपाल सुब्रमण्यम आर्टिकल 200 को अपने हिसाब से व्याख्यात करने की कोशिश कर रहे थे और उसके सपोर्ट में वो दूसरे कई आर्टिकल्स को कोट कर रहे थे और दूसरे तमाम पहले की प्रेसिडेंस यानी कि पहले सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए निर्णयों को भी वो कोट करते हुए नजर आ रहे थे। फिर सवाल यह है कि जो कुछ आर्टिकल 200 में लिखा हुआ है उस पर बात होनी चाहिए। आप उसको नकारने के लिए दूसरे आर्टिकल की भाषा जो दूसरे संदर्भ में है उसको लाने की कोशिश क्यों कर रहे हैं? इस पर बहुत ज्यादा सवाल नहीं किए गए। बाद में फिर नंबर आता है के के वेणुगोपाल का।
हालांकि वेणुगोपाल ने बहुत ज्यादा दलीलें तो नहीं दी और एक बार तो वह यह भी कहते हुए नजर आए कि जो कुछ दो जजों की बेंच ने किया है उसमें वो राष्ट्रपति को आदेश तो नहीं दे सकते हैं यानी टाइमलाइन नहीं बना सकते हैं। इस पर सीजीआई ने सवाल किया कि क्या आप सॉललीिसिटर जनरल से सहमति रख रहे हैं? तो फिर बात उन्होंने घुमा दी। यानी कि अब तक जो जितने भी वकीलों ने दलील दी है उन सबसे सुप्रीम कोर्ट की जो बेंच है वह यह चाहती थी कि वो लोग इस बात के पक्ष में दलीलें लेकर आए कि दो जजों की बेंच ने जो निर्णय लिया था क्या वो संवैधानिक था जिस पर सभी वकीलों ने जलेबी तो घुमाई लेकिन किसी ने भी यह नहीं कहा कि संविधान के अनुसार जो अधिकार सुप्रीम कोर्ट को प्राप्त है। उसके तहत वह निर्णय लिए गए हैं। हालांकि अरविंद दातार ने यह कहने की कोशिश की कि अगर दो जजों की बेंच ने ऐसा निर्णय लिया है और जैसा कि सरकार की तरफ से कहा गया कि ये बड़ी बेंच को क्यों रेफर नहीं किया गया था तो इसमें कोई बुराई नहीं है क्योंकि इससे पहले भी कंस्टिट्यूशन के प्रश्न पर दो या तीन जजों की बेंच फैसला ले चुकी है। इसके बीच में हस्तक्षेप किया सॉलिसिट जनरल ने और यह कहा कि इस मामले में भी अटर्नी जनरल जो कि तमिलनाडु के राज्यपाल की तरफ से वकील थे जब यह केस पारदीवाला और महादेवन की बेंच में चल रहा था तो उन्होंने भी यह प्रश्न उठाया था कि इस मामले को लार्जर बेंच को भेजा जाना चाहिए जो नहीं माना गया था। अरविंद दातार ने कहा कि यह सब जरूरी नहीं था क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने अगर निर्णय लिया है और पहले से प्रेसिडेंस है तो उस पर कोई दिक्कत नहीं है। यानी अरविंद दातार ये कहने की कोशिश कर रहे थे कि संविधान में जो संवैधानिक प्रश्नों के निर्णय का एक प्रावधान है कि वह संविधान पीठ को होना चाहिए। उसको भी नकारने की कोशिश अरविंद दातार की तरफ से की गई जो पंजाब सरकार के वकील के तौर पर खड़े हुए थे। इसके बाद निरंजन रेड्डी ने भी ऐसी ही बातें रखी और उन्होंने यह कहा कि डिस्क्रेशन का अधिकार राज्यपाल को है ही नहीं और राज्यपाल की जो शक्तियां है वो सीमित है और साथ ही साथ जो मंत्रिपरिषद होती है उसी के ऐड एंड एडवाइस पर वो चलते हैं तो फिर वो किसी बिल को रोक नहीं सकते और अगर कोर्ट कोई टाइमलाइन बनाती है कि तीन महीने का अगर उन्होंने टाइमलाइन बनाई तो इसमें कुछ बुराई नहींहै।
यानी यह सभी वकील जो कुछ दो जजों की बेंच ने किया था उसको जस्टिफाई करने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन अब तक चाहे सिबल सिंघवी वेणु गोपाल गोपाल सुब्रमण्यम या फिर अरविंद दादा निरंजन रेड्डी ये के वेणु गोपाल ये जितने भी वकील हैं ये इस बात को अभी तक उन्होंने स्पष्ट तौर पर संकेत नहीं किया कि दो जजों की बेंच ने जो आदेश दिया है क्या उसको उचित ठहराया जा सकता है क्या राष्ट्रपति राज्यपाल को आदेश देने की सुप्रीम सुप्रीम कोर्ट को पावर भारत के संविधान में मिली हुई है। इसका उन्होंने सीधा जवाब नहीं दिया। यानी उन्होंने इसकी पुष्टि नहीं की है जो कि सुप्रीम कोर्ट के पूरी बेंच की सबसे बड़ी चिंता है। क्योंकि वो लोग भी सोच रहे थे कि कहीं से कोई रास्ता निकल आए। जिससे दो जजों ने जो कुछ किया है उस पर इतनी ज्यादा किरकिरी ना हो। लेकिन अब यह तय हो चुका है कि किरकिरी तो हो ही रही है और होनी भी है। यहां एक और चीज बहुत ज्यादा स्पष्ट तौर पर नजर आई है जो वकालत पेशे की एक बहुत बड़ा हुनर माना जाता है कि जितने भी वकील होते हैं जो अपने क्लाइंट के पक्ष में फैसले कराने में कामयाब हो जाते हैं वो कभी भी किसी भी कानून को या संवैधानिक प्रावधान को सरल भाषा में रखने की कोशिश नहीं करते हैं। वो उसको उलझाने की कोशिश करते हैं। उसकी जलेबी बनाने की कोशिश करते हैं। जिससे कोर्ट को कंफ्यूज किया जा सके। यहां भी ये बेंच को कंफ्यूज करते हुए नजर आ रहे हैं। अगर अब तक जो आठ दिन की सुनवाई हुई है उसको अगर गौर से आप देखेंगे और उसकी एक एक दलील को आप पढ़ने की समझने की कोशिश करेंगे तो आपको यह समझ में आएगा कि पहले चार दिन जो सरकार की तरफ से चाहे अटर्नी जनरल हो चाहे सॉललीिसिटर जनरल हो या फिर हरीश सालवे हो या दूसरे अन्य वकील हो जिनमें एएसजी भी शामिल थे। महेश चेटमलानी भी शामिल थे। तमाम दूसरे एन के कॉल जैसे वकील शामिल थे। उन्होंने जितनी सरलता के साथ जितनी ज्यादा स्पष्टता के साथ बातों को रखा था वो सबकी समझ में आने वाली थी और संवैधानिक प्रावधानों के तहत थी। लेकिन दूसरी तरफ ये जो विपक्ष के वकील है क्योंकि इनके पास स्पष्ट कोई आर्गुममेंट नहीं है। कोई तर्क नहीं है। इसलिए ये अन्य दूसरे प्रावधानों को जोड़कर कुतर्क पेश करने की कोशिश करते हुए चीजों को उलझाने की कोशिश कर रहे हैं। तमाम ऐसे डिसीजंस को उन्होंने कोट किया है जो सीधे तौर पर इस मामले से संबंधित नहीं थे। राष्ट्रपति के जो 14 सवाल हैं उनसे उन चीजों का कोई लेना देना नहीं था। लेकिन फिर भी वो जो आर्टिकल 111 200 17 तमाम आर्टिकल्स को 254 368 जाने कितने कितने आर्टिकल्स के कुछ हिस्सों को उन्होंने इस मामले में बीच में करने की कोशिश की है जो स्पष्ट तौर पर बताता है कि उनके पास तर्कों की कमी है। उनके पास जो दो जजों की बेंच ने किया है उसका बचाव करने का कोई सीधा रास्ता नहीं है। अब सवाल उठता है कि फिर जब चीजें इतनी स्पष्ट है तो इतना ज्यादा अटपटा फैसला क्यों लिया गया? यह बहुत बड़ी गलती थी। यह एक ब्लंडर था। लेकिन अब उस ब्लंडर को बचाने की जो नाकाम कोशिश सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम के द्वारा या फिर कहें कि सीनियर जजेस के द्वारा हो रही थी और वकीलों को उन्हें लग रहा था कि वकील कुछ ऐसा ढूंढ के लाएंगे जिससे आसानी से वो बीच का एक रास्ता निकाल लेंगे। अभी बीच का रास्ता निकलता हुआ नजर नहीं आ रहा है। क्योंकि पहले चार दिन में जो स्ट्रांग क्सिट्यूशनल क्वेश्चंस उठाए गए हैं सरकार की तरफ से आने वाले वकीलों की तरफ से उनके कोई भी स्पष्ट जवाब दे पाने में ये जो विपक्ष की तरफ से वकील आए हैं वो कामयाब नहीं हो पाए हैं। ये चीजों को घुमाने की कोशिश कर रहे
हैं। ये दो जजों की बेंच के फैसले को सही ठहराने की कोशिश कर रहे हैं। और सिंघवी की तर्ज पर कई वकील तो यह कहने की कोशिश कर रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट के पास बहुत सारे अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट कुछ भी कर सकता है। सुप्रीम कोर्ट को परिस्थितियों को देखते हुए अपना निर्णय लेने की स्वतंत्रता है? लेकिन फिर सवाल ये आता है जो अटर्नी जनरल ने पूछा था कि क्या सुप्रीम कोर्ट संविधान का पुनर्लेखन कर सकता है? कैन सुप्रीम कोर्ट रीराइट द कॉन्स्टिट्यूशन? या फिर वो सवाल जो सॉललीिसिटर जनरल ने उठाया था कि क्या सुप्रीम कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में बैठे
हुए जज साहिबान भारत के राष्ट्रपति को आदेश दे सकते हैं या फिर जो दूसरे एक वकील ने जो सवाल उठाया था कि क्या सुप्रीम कोर्ट संविधान की भाषा को बदल सकता है? शब्दों को बदल सकता है? उनके मीनिंग बदल सकता है या फिर उन्हें हटा सकता है। यह जो स्ट्रांग सवाल पूछे गए थे पहले चार दिन की कार्यवाही में उनके कोई भी जवाब ढूंढ पाने में ये बेंच इन वकीलों की मदद से अभी कामयाब नहीं हुई है। और जिस तरीके से बीच-बीच में उन्होंने टिप्पणी करने की कोशिश की है। से जब एडवोकेट निरंजन रेड्डी बोल रहे थे तो सीजीआई ने कहा कि राज्यपाल
के पास जो अधिकार है वो इसका मतलब है कि वो ऐड एंड एडवाइस पे चलते हैं वो तो यानी वो अपने अंदर के उस संशय को मिटा लेना चाहते हैं क्योंकि अब उन्हें निर्णय देना पड़ेगा। उन्हें जवाब देना पड़ेगा। अरविंद दातार ने भी यह कहने की कोशिश की कि राष्ट्रपति के रेफरेंस का तो सवाल ही पैदा नहीं होता है। क्योंकि जो निर्णय पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने डिसाइड कर दिया है उस पर सवाल कैसे उठ सकते हैं? यानी वो यह कहना चाह रहे हैं कि अगर दो जजों ने कोई निर्णय दे दिया है तो फिर राष्ट्रपति ने रेफरेंस का इस्तेमाल क्यों किया है? यह सीधे तौर
पर उचित नहीं है। अब दूसरी तरफ सवाल वो भी है जो खुद सीजेआई ने अभिषेक मनु सिंवी से पूछा था कि क्या सुप्रीम कोर्ट संविधान में संशोधन कर सकता है? फिर सवाल यह भी उठा था कि अगर राष्ट्रपति या राज्यपाल सुप्रीम कोर्ट के आदेश को नहीं मानते हैं तो क्या फिर उनके ऊपर कंटेंप्ट ऑफ कोर्ट की कार्यवाई हो सकती है? बिल्कुल नहीं हो सकती। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के कंटेंप्ट ऑफ कोर्ट के दायरे में ना राज्यपाल आते हैं और ना ही राष्ट्रपति आते हैं।
फिर एक बड़ा प्रश्न यह भी है कि कोई भी बिल जब तक कानून नहीं बनता है तब तक उसका रिव्यू करने का अधिकार किसी भी कोर्ट को नहीं है। यानी कोर्ट को जुडिशियल रिव्यू का अधिकार किसी कानून के रिव्यू का है। जब तक वो बिल है तब तक उस पर कोर्ट रिव्यू नहीं कर सकती और बिल तब तक कानून नहीं बन सकता जब तक कि राज्यपाल के राष्ट्रपति के उस पर हस्ताक्षर ना हो जाए। यानी जब तक कोई बिल कानून बनेगा ही नहीं उसे सुप्रीम कोर्ट कैसे कानून की मान्यता दे सकती है और कैसे उसका जुडिशियल रिव्यू कर सकती है जो प्रश्न इस बात पर आया था कि अगर कोई भी ऐसा कानून स्टेट जो लेजिस्लेचर है वो पास कर देती है और उस पर राष्ट्रपति और राज्यपाल स्वीकृति नहीं देते हैं अगर वो डीम्ड एसेंड से कानून बन जाता है फिर उसकी क्सिटुएंटिटी का प्रश्न उठता है तो फिर सुप्रीम कोर्ट उस पर कैसे विचार कर सकता है यानी यहां पर सुप्रीम कोर्ट ही आदेश दे रहा है कानून बनाने का और बाद में सुप्रीम कोर्ट ही उसकी जांच कर रहा है। ये बहुत बड़ा प्रश्न उठकर सामने आया था। साथ ही साथ यह बात भी पूछी गई सुप्रीम कोर्ट में कि अगर ऐसा हो जाएगा तो फिर राज्यपाल के पद का महत्व क्या हो जाएगा?
सिंघवी सिब्बल टाइप के वकीलों ने जैसा कि कहा कि राज्यपाल का जो पद है वह दिखावे का है। वह अलंकारिक पद है।यह तुलना करने की कोशिश की गई कि जो राष्ट्रपति को अधिकार है वही राज्यपाल को है। लेकिन वो यह भूल गए कि राष्ट्रपति राष्ट्र के हेड है और वहां पर जनता द्वारा चुनी हुई जो मंत्री परिषद है वो ज्यादा पावरफुल है। लेकिनकि हमारा संघीय ढांचा है। इसलिए जो राज्यपाल हैं उनके पास डिस्कशनरी पावर इसलिए ज्यादा है क्योंकि वो राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के तौर पर संविधान के रक्षक के तौर पर राज्य में काम कर रहे होते हैं और अगर राज्य सरकार जो होती है कोई भी गलती करती है तो उस गलती को सुधारने या रोकने की पावर राज्यपाल को आर्टिकल 200 में दी गई है। आर्टिकल 200 में जो चार बातें कही गई हैं उनमें से तीन को यह लोग स्वीकार कर रहे हैं जो विपक्षी पार्टियों के वकील हैं और एक जो बात उसमें विदहोल्ड लिखा हुआ है उसको यह पूरी तरीके से डिलीट कर देना चाहते हैं उसको हटा देना चाहते हैं और उसी के लिए पिछले चार सुनवाई में इन लोगों की कोशिशें जारी हैं। तो सवाल यह उठता है कि जो कुछ संविधान में स्पष्ट तौर पर लिखा हुआ है सुप्रीम कोर्ट उसको कैसे हटा सकता है? कैसे बदल सकता है? कैसे उसका मीनिंग बदल सकता है? जो कि एक असंवैधानिक कार्य है और सुप्रीम कोर्ट को ऐसा करने की पावर नहीं है। संविधान में कुछ भी बदलाव करने की अगर पावर है तो वो केवल और केवल संसद के पास है। संसद ऐसा कर सकती है। सुप्रीम कोर्ट ऐसा नहीं कर सकता। सुप्रीम कोर्ट ज्यादा से ज्यादा संसद से सरकार से आग्रह कर सकता है कि आप इन चीजों में तबली तब्दीली कीजिए। बदलाव कीजिए, संशोधन कीजिए लेकिन संशोधन नहीं कर सकता है। और यह बात को यह बेंच भी मान चुकी है, यह स्वीकार कर चुकी है।
इस बेंच के सामने कई सारे जो सवाल थे उनके तो स्पष्ट तौर पर जवाब इनको मिल चुके हैं। पहला तो ये कि ये सुप्रीम कोर्ट, राष्ट्रपति, राज्यपाल को आदेश नहीं दे सकता। सुप्रीम कोर्ट संविधान में कोई संशोधन नहीं कर सकता है। सुप्रीम कोर्ट किसी भी बिल को अपने आदेश से कानून नहीं बना सकता है। सुप्रीम कोर्ट का अपना दायरा है और उस दायरे को क्रॉस भी नहीं कर सकता है। सुप्रीम कोर्ट को सही तरीके से आईना इस केस के माध्यम से अब दिखा दिया गया है और अब सुप्रीम कोर्ट के ऊपर है कि वो किस तरीके से अपने जो दो जजों की गलती है उसको किस हद तक स्वीकार करता है। किस हद तक उसको सुधारने की कोशिश करता है और किस हद तक संविधान को जैसा कि वो खुद को संविधान का संरक्षक घोषित करते हैं। हालांकि सॉलिसिटर जनरल ने इसका काउंटर भी किया था और ये कहा था कि विधायिका और कार्यपालिका भी संविधान की संरक्षक ही है। ये सारी चीजों के जवाब सुप्रीम कोर्ट को देने ही पड़ेंगे।
अब अगले दिन की सुनवाई है। उसमें सरकार की तरफ से काउंटर्स आएंगे लेकिन अब तक जो विपक्षी पार्टियों के वकीलों ने दलील दी है उसका पूरा सार हमने आपको बता दिया है और एक तरीके से वो सब के सब वकील इस मामले में तमाम कोशिशों के बावजूद फेल होते हुए नजर आ रहे हैं। जो संविधान में प्रावधान है उनका उनके पास कोई जवाब नहीं है। वो चीजों को उलझाने की कोशिश कर रहे हैं और एक मोरल सपोर्ट देते हुए नजर आ रहे हैं सुप्रीम कोर्ट की उस बेंच को जिसने यह फैसला लिया था या फिर इस बेंच को जो अब राष्ट्रपति के रेफरेंस पर सुनवाई कर रही है। लेकिन इस बेंच में बैठे हुए जज भी पूरी तरीके से यह जानते हैं कि गलती तो हुई है। अब उस गलती को कैसे स्वीकार किया जाए, कैसे सुधारा जाए और कैसे जो सवाल पूछे गए हैं, उनका स्पष्ट जवाब दिया जाए क्योंकि ये जवाब केवल राष्ट्रपति के लिए नहीं होंगे। यह इस देश की 144 करोड़ जनता के लिए होंगे और जनता यह सब देख भी रही
है, सुन भी रही है और आगे जनता भी निर्णय करने के लिए बैठी हुई है। सुप्रीम कोर्ट के जज साहब यह जानते हैं कि इस बार इतनी आसानी से चीजों को वो सुलटा नहीं सकते हैं। सुलझा नहीं सकते हैं। जो चीजें उलझा दी गई है दो जजों के द्वारा और उसका खामियाजा अब सुप्रीम कोर्ट को अपनी साख पर बट्टा लगवाकर भी भुगतना पड़ रहा है। जिस तरीके से ये दलीलें हुई है और जिस तरीके से सरकार की तरफ से दलीलें रख के संविधान का सरलीकरण करके लोगों को समझाने की कोशिश की गई उसके बाद तो सिबल सिंह गोपाल सुब्रमण्यम वेणुगोपाल जैसे वकीलों की उलझाहट में लोग फसेंगे। इसकी संभावना नहीं है। अब हर आम आदमी को समझ में आ चुका है कि तमिलनाडु गवर्नर केस में सुप्रीम कोर्ट ने कितना बड़ा असंवैधानिक फैसला लिया था।
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