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Sunday, October 12, 2025

सुप्रीम कोर्ट ने 10 साल बाद दिवाली पर पटाखों के ऊपर से प्रतिबंध हटाने का ऐलान किया है

सुप्रीम कोर्ट ने 10 साल बाद दिवाली पर पटाखों के ऊपर से प्रतिबंध हटाने का ऐलान किया है
सुप्रीम कोर्ट ने 10 साल बाद दिवाली पर पटाखों के ऊपर से प्रतिबंध हटाने का ऐलान किया है
सुप्रीम कोर्ट ने 10 साल बाद दिवाली पर पटाखों के ऊपर से प्रतिबंध हटाने का ऐलान किया है
सुप्रीम कोर्ट ने 10 साल बाद दिवाली पर पटाखों के ऊपर से प्रतिबंध हटाने का ऐलान किया है

 


 कॉलेजियम को लेकर भारत की न्यायपालिका को लेकर सुप्रीम कोर्ट के जजों को लेकर जो एक बहस छिड़ गई है अब उसके अच्छे परिणाम भी आते हुए दिख रहे हैं। जी हां, सुप्रीम कोर्ट ने 10 साल बाद दिवाली पर पटाखों के ऊपर से प्रतिबंध हटाने का ऐलान किया है। दिवाली पर 5 दिन के लिए पटाखों पर से प्रतिबंध हटा लिया जाएगा। यह सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच ने फैसला लिया है। इस बेंच में थे भारत के सीजीआई जस्टिस बी आर गवई और जस्टिस के विनोद चंद्रन। अब यह फैसला महत्वपूर्ण इसलिए है कि खासकर जो सनातन संस्कृति से जुड़े हुए त्यौहार होते हैं उन्हीं पर अदालतों का जो रवैया है बहुत ज्यादा विरोधाभासी देखने को नजर आता है। होली पर पानी बचाने की बात करते हुए आपको बहुत से लोग मिल जाएंगे। उसी तरीके से दिवाली पर पटाखे ना चलाने की बात होती थी और इस पर प्रतिबंध भी लगा दिया जाता था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट की इस दो जजों की बेंच ने भी माना कि पिछले 10 सालों में प्रतिबंध लगाए जाने के बावजूद पटाखे चलने तो बंद नहीं हुए तो फिर फायदा क्या हुआ? इससे तो अच्छा है कि लिमिटेड और संयमित तौर पर पटाखे चलाने की छूट दी जाए ना कि उस पर प्रतिबंध लगाकर लोगों को चोरी छुपे पटाखे चलाने दिए जाए क्योंकि यह बहुत व्यापक मामला है। 

दिल्ली सनातनी संस्कृति के ही लोगों का एक गढ़ है और वहां कम से कम 90% जनता पटाखे चलाती है या पटाखे चलाने वाले लोगों से संबंधित है तो फिर आप हर गली हर चौराहे पर हर नुक्कड़ पर तो पुलिस नहीं बिठा सकते हैं। यानी कि सुप्रीम कोर्ट की जो प्रतिबंध रहा था उसके बावजूद दिल्ली में खूब पटाखे चलते थे। आतिशबाजी होती थी। दिल्ली के आसमान में रात को दो-दो तीन-तीन बजे तक के लिए आतिशबाजी देखी जाती थी। दिवाली गोवर्धन और भैया दूस के दिन। इसी बात को स्वीकार करते हुए जस्टिस बी आर गवई की बेंच ने यह मान लिया है कि पटाखों पर जो प्रतिबंध लगाया गया था उसका कोई बहुत ज्यादा असर समाज पर नहीं हो रहा था और ना ही जो आंकड़े आए थे उसमें कोई बहुत ज्यादा यह देखने को मिला था कि जब पटाखे नहीं चलते थे तो दिल्ली की जो आबोहवा है दिल्ली का जो प्रदूषण स्तर है वो घट जाता था। एक बड़ा खुलासा यह हुआ कि केवल कोविड के दौरान क्योंकि उस समय फैक्ट्रियां नहीं चल रही थी, वाहन भी नहीं चल रहे थे। तभी केवल प्रदूषण के स्तर में कमी आई थी। अन्यथा पिछले 10 सालों में जिस अवधि में बार-बार सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिल्ली में पटाखों पर एनसीआर में पटाखों पर प्रतिबंध लगाए जाते रहे। लेकिन हवा की जो क्वालिटी होती है, एयर क्वालिटी इंडेक्स जो होता है, उसमें बहुत ज्यादा क्रांतिकारी परिवर्तन देखने को नहीं मिला था।

 हालांकि इस जो फैसला आया है उसको लेकर जो एक पूरा एनजीओ गैंग था वो इसका विरोध भी कर रहा है। वो कह रहे हैं कि यह गलत है। पर्यावरण का ध्यान नहीं रखा गया है। जो बच्चे होते हैं जो बुजुर्ग होते हैं उनको इससे परेशानी होती है। हालांकि सरकार ने इसका भी समाधान सुझाया है और केंद्र सरकार की तरफ से इस मामले में पैरवी करते हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने स्पष्ट किया कि जो पटाखे हैं केवल जो ग्रीन पटाखे जिनको सर्टिफिकेट मिला हुआ है पर्यावरण की एजेंसियों की तरफ से उन्हीं की बिक्री की अनुमति होगी और ऑनलाइन यानी कि Amazon, Flipkart जैसी वेबसाइटों के माध्यम से पटाखे दिल्ली में नहीं बेचे जाएंगे। पटाखे केवल लाइसेंसशुदा दुकानों के माध्यम से ही बिकेंगे। ग्रीन पटाखे ही बिकेंगे। उसके अलावा जो पुराने और जो वो पारंपरिक पटाखे हैं जिससे ज्यादा प्रदूषण होता है उनको ज्त कर लिया जाएगा। उन लोगों को बेचने की परमिशन नहीं होगी और ना ही चलाने की परमिशन होगी।

5 दिन के लिए इस प्रतिबंध का हटना सीधे तौर पर सनातन की और उन लोगों की बड़ी जीत है जो इसको लेकर पिछले 10 सालों से सवाल उठाते रहे हैं और इसका एक जो संबंध है वो अभी पिछले दिनों जो हंगामा हुआ था भगवान विष्णु से जो सीएजेआई बी आर गवई ने एक टिप्पणी कर दी थी कि जाओ अपने भगवान से प्रार्थना करो और वही इस सबको ठीक करेंगे ऐसा लगता है कि भगवान श्री हरि विष्णु ने उन्हें सद्बुद्धि दे दी है और उन्होंने यह अच्छा काम करने में अपनी भूमिका निभाई है। क्योंकि अगर यह प्रतिबंध नहीं भी हटता तब भी दिल्ली में पटाखे तो चलने थे और हर बार की तरह से सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का उल्लंघन होना था। इससे अच्छा उन्होंने भूल सुधार करते हुए पांच दिन की जो परमिशन दी है केंद्र सरकार ने बाकी त्योहारों पर भी इसकी परमिशन मांगी है। जैसे नव वर्ष होता है जैसे प्रकाश पर्व होता है सिखों का और उसी तरीके से जो दूसरे इस तरीके के त्यौहार होते हैं उन पर भी परमिशन मांगी और यह कहा है कि कुछ प्रतिबंधों के साथ वहां भी पटाखे चलाने की अनुमति दी जा सकती है।


 अब यह जो हुआ है इसके पीछे सबसे बड़ी ताकत जनता की ताकतहै। क्योंकि अब से पहले जनता जो कुछ सुप्रीम कोर्ट हाई कोर्ट से आदेश पारित हो जाता था उस पर चुप्पी साध कर रहती थी। कहीं कोई चर्चा नहीं होती थी। इक्कादुक्का लोग सोशल मीडिया पर कुछ कमेंट लिख देते थे, पोस्ट लिख देते थे। लेकिन उनका कोई व्यापक असर होता हुआ नहीं दिखता था। अभी पिछले एक साल के दौरान और खासकर यशवंत वर्मा के घर पर जो नोटों की होली जली उसके बाद तो जुडिशरी के खिलाफ जनता में जो रोष है वो दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है और सुप्रीम कोर्ट हाई कोर्ट के तमाम जो अजीबोगरीब फैसले होते हैं उन पर जनता अब चर्चा भी करती है। उनके बारे में जानती भी है और अपनी राय भी देती है। आए दिन जिस तरीके से हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों के निर्णय सामने आ रहे हैं और ज्यादातर निर्णयों में जो भारतीय संस्कृति है, भारतीय जो परंपराएं हैं, भारतीय जो विरासत है, उस सबके खिलाफ जिस तरीके से फैसले लिए जाते हैं, जनता उससे सहमत होती हुई नहीं नजर आ रही है। 

यह एक अच्छा संकेत है। क्योंकि जनता ही इस देश की मालिक है। भारत के संविधान की जो पहली लाइन है वो बोलती है बी द पीपल ऑफ इंडिया यानी कि सोवनिटी ऑफ इंडिया लाइ इन द पीपल ऑफ इंडिया नाइदर इन द प्रेसिडेंट नर इन द प्राइम मिनिस्टर ऑफ इंडिया तो उस स्थिति में सुप्रीम कोर्ट कैसे भारत की जनता पर अपने आदेश थोप सकता है सुप्रीम कोर्ट का काम है लॉ जो बनाए जाते हैं संसद के द्वारा या पहले से बने हुए हैं उनके आधार पर लीगलिटी इललीगलिटी का डिसीजन देना देना ना कि देश की जनता को संविधान से इधर जाकर कानूनों से ऊपर जाकर कोई भी आदेश देना और अब यह बात सुप्रीम कोर्ट में बैठे हुए जजों को भी समझ लेनी पड़ेगी। दुनिया के किसी भी देश में इस तरीके की जुडिशरी नहीं है जैसी हमारे यहां चलती है। हर देश में जो जजों की नियुक्ति होती है वह प्रेसिडेंट के द्वारा या प्राइम मिनिस्टर यानी कि एग्जीक्यूटिव के द्वारा  ही होती है। कुछ देशों में एग्जीक्यूटिव और लेजिस्लेचर यानी कि संसद और सरकार दोनों मिलकर जजों की नियुक्ति करते हैं।

लेकिन भारत एकमात्र ऐसा देश है जहां पर जजों की नियुक्ति जज खुद करते हैं। अपने ही रिश्तेदारों में से करते हैं या फिर अपने ही चेले चपाटों में से करते हैं। ये एक असंवैधानिक परंपरा है। ये एक अलौकिक भी कह सकते हैं क्योंकि पृथ्वी लोक पर तो ऐसा कहीं भी किसी भी देश में नहीं होता है जैसा केवल भारत में होता है और इस पूरी प्रक्रिया में बहुत सारी विरोधाभासी बातें हैं। सबसे बड़ी विरोधाभासी बात तो यह है कि जब सुप्रीम कोर्ट का कॉलेजियम जजों की नियुक्ति करता है सुप्रीम कोर्ट में या चीफ जस्टिस बनाता है हाई कोर्ट के तो फिर वो ऑल इंडिया लेवल पर हाई कोर्ट जजों की जो सीनियरिटी लिस्ट होती है उसको पूरी तरीके से नकार देता है। लेकिन जब वही जज सुप्रीम कोर्ट आ जाते हैं तो वहां पर फिर सबसे ज्यादा बड़ा सिद्धांत सीनिरिटी का बना दिया जाता है। यानी एक जज जो हाई कोर्ट का जज होते हुए 50वें 60वें नंबर पर था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट में अगर वह पहले नियुक्त हो गया है, पहले प्रमोट हो गया है, तो फिर वह सीनियर हो जाएगा उस जज से जो उससे 4 साल 5 साल और रैंक में भी 50 60 ऊपर है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट में वो सीनियर माना जाएगा। और इसका अभी के वर्तमान जो 34 जज है उनमें भी बड़ा एक उदाहरण देखने को मिलता है। जस्टिस पारदीवाला जो 2028 में भारत के सीजीआई बनने वाले हैं वो जस्टिस आलोक अराधित से जूनियर हैं जो अभी सुप्रीम कोर्ट पहुंचे हैं। यानी जो वास्तव में सीनियर है वो सुप्रीम कोर्ट में जूनियर बन गया है। और जो जूनियर है वह सीनियर बन गया है और उसकी वजह से सुप्रीम कोर्ट में सीजीआई का जो पद है वह फिक्स हो जाता है। यानी सुप्रीम कोर्ट में अगले 8 साल में कितने लोग और कैसे-कैसे सीजीआई बनेंगे? उनके कॉलेजियम में कौन लोग होंगे यह पहले से ही पूर्व निर्धारित कर दिया गया है। यानी शतरंज की बिसात जैसी ये बिछा दी गई है कि कौन सा प्यादा जाकर वजीर बनेगा। कौन सा प्यादा या घोड़ा बीच में मारा जाएगा या वो रास्ते से हट जाएगा। जैसे शतरंज में जो खेलने वाला होता है वो डिसाइड करता है कि कौन सा प्यादा मजबूत है। हाथी मजबूत है या प्यादा मजबूत है। उसी तरीके से सुप्रीम कोर्ट में ये जो पिक एंड चूज की पॉलिसी चलती है। उसकी वजह से ऑल इंडिया लेवल पर हाई कोर्ट जजेस की सीनियरिटी को एक तरीके से बेकार साबित कर दिया जाता है। लेकिन बाद में सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति के बाद में उसी सीनियरिटी को सबसे बड़ा आधार बनाकर उस व्यक्ति को भारत का सीजीआई बना दिया जाता है। अब इसको लेकर भी एक बड़े मंथन की जरूरत है। जनता को सोचने की जरूरत है कि इस देश में राष्ट्रपति का भी चुनाव होता है जो भारत के सर्वोच्च अधिकारी होते हैं। तो फिर सुप्रीम कोर्ट के जजों का चुनाव क्यों नहीं होना चाहिए? अब इन जजों को सोचना पड़ेगा कि वह अपने में से चुनाव करेंगे या फिर सरकार और जनता मिलकर इनके चुनाव की कोई प्रक्रिया निर्धारित करेगी।


हमारा तो सुझाव यह है कि जैसे राष्ट्रपति के चुनाव में सांसद और समस्त विधानसभाओं के विधायक मिलकर वोट करते हैं। उसी तरीके से भारत का सीजीआई चुने जाने के लिए हाई कोर्ट्स के जज और सुप्रीम कोर्ट के जज आनुपातिक प्रदत प्रणाली के तहत एक चुनाव में हिस्सा लें। जो लोग सीजीआई बनना चाहते हैं तीन से चार लोगों को चुनाव लड़ने की अनुमति दी जाए और उसमें से अनुपातिक प्रणाली के आधार पर जिसको सबसे ज्यादा मत मिले उसको भारत का सीजीआई बनाया जाना चाहिए ना कि उस व्यक्ति को जिसके नियुक्ति पर ही सवाल उठे जिसकी नियुक्ति पर जज


ऑब्जेक्शन करें बाद में वो नियुक्त हो जाए और पांच से सात साल सुप्रीम कोर्ट में रहने के बाद में भारत का सीजीआई भी बन बन जाए जबकि उससे सीनियर जज भी सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट में बैठे हो। यह सीधे तौर पर भारत के संविधान के आर्टिकल 16 जिसमें समानता के अधिकार की बात की गई है, अफसरों की समानता की बात की गई है, उसका साफ तौर पर उल्लंघन है और भारत का संविधान अगर सर्वोच्च है तो भारत की जनता भारत के संविधान के उल्लंघन को किसी भी तरीके से स्वीकार नहीं करेगी। यह भारत के हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में बैठे हुए लाट साहबों को भी अच्छी तरीके से समझ लेनी चाहिए और जनता जिस तरीके से प्रतिक्रिया दे रही है नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका में जैन जी का आंदोलन हुआ था।

जैन एक्स से आने वाले राकेश किशोर ने जिस तरीके से सुप्रीम कोर्ट में जूता फेंकने की घटना को अंजाम दिया यह इस बात को दिखाता है कि भारत की जनता में आक्रोश दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है और अगर इस आक्रोश को कम करना है, इसको रोकना है तो इसके लिए सुप्रीम कोर्ट और जुडिशरी को ही अपने आप में सुधार करने पड़ेंगे। इस कॉलेजियम रूपी असंवैधानिक व्यवस्था को खत्म करना पड़ेगा। जजों की नियुक्ति में जो भाई भतीजावाद चलता है, जो चेलापंती चलती है, उसको रोकना पड़ेगा और उसके लिए एक ऑल इंडिया लेवल पर जुडिशियल सर्विस भी बनानी पड़ेगी। जिसका सुझाव भारत की राष्ट्रपति ने भी दिया था 2 साल पहले। सरकार को भी यह सोचना पड़ेगा कि वो कब तक सुप्रीम कोर्ट की मनमानी को सहती रहेगी। जिससे सरकार भी पीड़ित है। संसद के बनाए हुए कानून भी निष्प्रभावी हो जाते हैं। और देश की जनता तो पीड़ित है ही क्योंकि देश में 5 करोड़ से ज्यादा केसेस पेंडिंग है और उसके लिए एकमात्र अगर जिम्मेदारी किसी की बनती है तो वो जुडिशरी की बनती है। सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट की बनती है और भारत के सीजीआई की बनती है।



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