गुवाहाटी हाई कोर्ट में जस्टिस कमल राय सुराना और जस्टिस सुष्मिता फूकन के फैसले से न्याय की जीत
अभी पिछले दिनों एक सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आया था और यह निर्णय था नागरिकों के मूल अधिकारों को लेकर। आपने अक्सर सुना होगा हाई कोर्ट सुप्रीम कोर्ट में जो लिबरल कांग्रेसी गैंग है यह हमेशा ही मौलिक अधिकारों के नाम पर अपराधियों को बचाने की कोशिश करता हुआ नजर आता है और उसी कड़ी में सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा फैसला लिया और आर्टिकल 22 के तहत हर गिरफ्तार होने वाले व्यक्ति को यह अधिकार दिया कि उसको गिरफ्तारी से पहले लिखित में उसकी गिरफ्तारी की वजह बतानी पड़ेगी और विशेष स्थितियों में मजिस्ट्रेट के सामने पेश करने से 2 घंटे पहले कम से कम यह वजह बतानी पड़ेगी अन्यथा गिरफ्तारी को अवैध माना जाएगा। इसी से कुछ रिलेटेड एक मामला आता है गुवाहाटी हाई कोर्ट में। और गुवाहाटी हाई कोर्ट में इस मामले की सुनवाई कर रहे थे जस्टिस कमल राय सुराना और जस्टिस सुष्मिता फूकन। इन्होंने जो मामले में संविधान में जो मौलिक अधिकारों का पूरा का पूरा व्याख्या है और उसको किस तरीके से मिसयूज किया जाता है उसके संदर्भ में जो फैसला दिया है वोआज भारत के हर नागरिक को जानना जरूरी है
इसलिए भी जानना जरूरी है कि कॉलेजियम से आने वाले ये तमाम जो जजेस होते हैं जो कांग्रेस कम्युनिस्ट लिबरल को बहुत ज्यादा सपोर्ट करते हैं और इस हद तक सपोर्ट करते हैं कि अपराधियों, आतंकवादियों, विदेशियों तक को नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों की दायरे में लाने की कोशिश करते हैं। गुवाहाटी हाई कोर्ट में जो मामला है वो मौलिक अधिकारों से ही संबंधित है। लेकिन बड़े ही व्यापक विस्तार के साथ दोनों जजों ने साफ कह दिया है कि जो संवैधानिक अधिकार यानी मौलिक अधिकार जो होते हैं वो नागरिकों के लिए होते हैं घुसपैठियों या विदेशियों के लिए नहीं होते। अब आप कुछ-कछ मामले को समझने लगे होंगे। देखिए बांग्लादेशी घुसपैठियों की जो सबसे ज्यादा समस्या झेल रहे राज्य हैं उनमें सबसे पहला नंबर आता है असम का उसके बाद पश्चिम बंगाल का उड़ीसा और जो बाकी के नॉर्थ ईस्ट के दूसरे राज्य हैं उनमें भी ये बड़ी समस्या है। लेकिन पश्चिम बंगाल में पहले कम्युनिस्टों का शासन रहा और उसके बाद तृणमूल की सरकार आई। इसलिए वहां इसको समस्या के रूप में नहीं देखा जाता है बल्कि इसको वहां पर एक एसेट्स के रूप में या तुष्टीरण की राजनीति के हथियार के रूप में देखा जाता है।
असम में भी वही पहले चलता था जब वहां कांग्रेस की सरकारें हुआ करती थी। लेकिन इसके खिलाफ असम में खूब आंदोलन हुए। वहां पर फॉरेन ट्रिब्यूनल बनी। डिटेंशन सेंटर्स खोले गए और विदेशियों की पहचान की गई। भारत में जो नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजनशिप है एनआरसी वो भी असम में ही लागू हुआ। मामला यहां पर यह आया था कि एक रजिया खातून नाम की महमला ने हेबियस कॉरपस यानी कि बंदी प्रतिच्छीकरण की याचिका हाई कोर्ट में लगाई थी और यह कहा था कि मेरे पति को पता नहीं राज्य सरकार या पुलिस ने कितने दिनों से गायब कर रखा है। उसकी कोई खोजखबर नहीं बताई जा रही है। वह क्यों गिरफ्तार किया गया है यह भी नहीं बताया जा रहा है। और अब तो सुप्रीम कोर्ट ने भी ये कह दिया है कि किसी भी व्यक्ति को बिना उसकी गिरफ्तारी के कारण बताए लिखित में कारण बताए गिरफ्तार नहीं किया जा सकता। इसलिए पुलिस और राज्य सरकार को इसका जो मेंडामस दिया जाए इस मामले में बदली प्रत्यक्षीकरण में आदेश दिया जाए कि वो मेरे पति को सामने पेश करें।
मामले की सुनवाई करते हुए दोनों जज महोदय ने साफ कर दिया कि देश में जो घुसपैठियों की समस्या है वो बहुत ज्यादा विकराल रूप लेती जा रही है और जो मौलिक अधिकार है चाहे 14 आर्टिकल 14 हो 15 16 17 18 19 20 21 22 ये जितने आर्टिकल है ये जो है ये केवल और केवल भारतीय नागरिकों के लिए है विदेशियों या घुसपैठियों के लिए नहीं है। यह जो महिला है जिसने अपने पति के बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिका लगाई थी।हेबियस कॉर्पस की याचिका लगाई थी। इसका पति फॉरेन ट्रिब्यूनल के द्वारा एक घोषित विदेशी है। यानी उसे कई साल पहले ही फॉरेन ट्रिब्यूनल ने बांग्लादेशी घोषित कर दिया था और उसको कुछ सालों के लिए डिटेंशन सेंटर में रखा भी गया। बाद में इसको छोड़ा गया तो यह कहा गया था कि हर हफ्ते यह थाने में जाकर हाजिरी लगाएगा और बाद में फिर से उसको पुलिस ने डिटेंशन में ले लिया।
अब इस वजह से इसकी पत्नी ने याचिका लगाई तो कोर्ट ने यह कहा कि यह विदेशी है और विदेशी व्यक्ति जो घोषित विदेशी है उसको उसके देश में निष्कासित जा सकता है। दूसरी तरफ कोर्ट ने उस मुद्दे को भी उठाया कि आज मीडिया में जो एक एक्सपेंशन का एक टर्म होता है जो कि घोषित विदेशियों के लिए होता है और एक टर्म होता है डिपोर्टेशन का। डिपोर्टेशन उसका होता है जो वैलिड तौर पर किसी देश में एंट्री लेता है लेकिन उसके जो वीजा की अवधि है वो बीत जाती है और वो उसके बावजूद अगर किसी देश में बना रहता है तो उसको डिपोर्ट किया जाता है और जो विदेशी होता है उसको किया जाता है यानी कि उसको निष्कासित किया जाता है। हिंदी में अगर देखें तो डिपोर्टेशन के लिए निर्वासन का शब्द होता है तो यहां इस व्यक्ति को निष्कासित करने के लिए अगर सरकार ने सरकारी एजेंसियों ने डिटेन किया है तो फिर किसी भी तरीके से यह अधिकारों का उल्लंघन नहीं है। और आर्टिकल 22 के तहत इस व्यक्ति का कोई अधिकार नहीं बनता है या फिर बंदी प्रत्यक्षीकरण के तहत भी इसका कोई अधिकार नहीं बनता है। इसलिए यह अपील खारिज की जाती है।
अब आप इसका पूरा का पूरा इंपैक्ट समझिए कि अब तक चाहे प्रशांत भूषण हो या जो दूसरे लोग थे जब वो ऑपरेशन सिंदूर चल रहा था और देश से बाहर लोगों को निकाला जा रहा था। पाकिस्तानियों को, बांग्लादेशियों को तो यह याचिका लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंची थी और सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिका को बड़े ही गंभीरता से सुना था। उसके साथ-साथ जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट का भी एक फैसला आया था कि एक महिला जिसे वापस भेज दिया गया था पाकिस्तान उसको बुलाने तक का आदेश दे दिया था हाईकोर्ट ने। यह दोनों जो प्रश्न है वह इस केस में पूरी तरीके से देखे गए हैं और यहां दोनों चीजें स्पष्ट कर दी गई है कि अगर व्यक्ति वैलिड वीजा लेकर पासपोर्ट के माध्यम से देश में आया है और उसकी अवधि समाप्त हो गई है तो उसे डिपोर्ट किया जा सकता है वो भी लीगल है और अगर वह अवैध रूप से आया है वो घुसपैठिया है वो विदेशी है चोरी छुपे आया है तो फिर उसको निष्कासित किया जा सकता है और इसके खिलाफ कोई भी व्यक्ति कोर्ट के अंदर बंदी प्रत्यक्षीकरण या हैवियस कॉरपस की याचिका नहीं लगा सकता क्योंकि यह जो संवैधानिक अधिकार हैं वो सिर्फ और सिर्फ नागरिकों के लिए होते हैं।
अब इस पूरे फैसले के बाद में बहुत से लोग ये कहेंगे कि अब ये जो रजिया खातून है वो सुप्रीम कोर्ट आएगी। सुप्रीम कोर्ट उसे राहत दे देगा। देखिए इतना आसान नहीं होता है। जब संवैधानिक प्रश्न किसी संवैधानिक न्यायालय के द्वारा सुलझाए जाते हैं तो उनको खारिज करने के लिए सुप्रीम कोर्ट को भी रीजनिंग देनी पड़ती है। पहले ये सब बड़ी आसानी से हो जाता था क्योंकि पेड मीडिया का जमाना था और जो पेड मीडिया होता है वो डरा हुआ मीडिया है। वो इन चीजों पर पहले तो रिपोर्टिंग नहीं करता और करता है तो एक तरीके से चाटुकारता पूर्ण रिपोर्टिंग करता है। लेकिन अब इन चीजों के जब जनता की नजर में ये चीजें आती है तो फिर सुप्रीम कोर्ट में चाहे सीजीआई सुनवाई करे या कोई जज उसकी सुनवाई करे। वो हर मामले को उतने ज्यादा हल्के में नहीं ले सकता जैसे वो पहले ले सकते थे।
इस हिसाब से यह जो गुवाहाटी हाई कोर्ट का फैसला है यह एक लैंडमार्क फैसला कहा जा सकता है और जो घुसपैठिए हैं जो विदेशी हैं उनके मामलों में अब राज्य सरकार को एक शक्ति दे सकता है क्योंकि अगर ऐसे व्यक्तियों के बंदी प्रत्यक्षीकरण की मांग उठाई जाएगी तो फिर यह फैसला उसमें एक लैंडमार्क साबित होगा और इसको सुप्रीम कोर्ट इतनी आसानी से पलट नहीं सकता है क्योंकि कोर्ट ने जिस तरीके तरीके से सारी चीजों को स्पष्ट तौर पर डिफाइन कर दिया है। उसके बाद कोई भी यह नहीं कह सकता कि उसके अधिकार थे। क्योंकि अधिकार तो सिर्फ नागरिकों के होते हैं।जिन अधिकारों के नाम पर चाहे नेचुरल जस्टिस का अधिकार हो या फिर दूसरे ह्यूमन राइट्स की बात हो। ये जो बचाव किया जाता है अपराधियों का, आतंकवादियों का, देश विरोधियों का उसकी एक सीमा जरूर होनी चाहिए। और जो अधिकार किसी नागरिक के होते हैं वो किसी विदेशी के या घुसपैठिए के किसी भी हालत में नहीं हो सकते। दुनिया का कोई भी कानून, कोई भी संविधान इसकी बात नहीं करता है।
लेकिन हमारे देश के जो ग्लोबल सिटीजंस हैं यानी कि जो कम्युनिस्ट हैं या फिर कांग्रेसी लिबरल गैंग के जो लोग हैं वो अपने आप को ग्लोबल सिटीजन मानते हैं और हर अपराधी चाहे वो बांग्लादेश से आया हो, पाकिस्तान से आया हो, चीन से आया हो उसको भी बराबर के अधिकार देने की वकालत ये लोग करते हैं। और सिबल सिंह भी या प्रशांत भूषण टाइप के वकीलों के कुतर्कों के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट से ऐसे लोगों को राहत दिलाने में कामयाब भी हो जाते हैं। लेकिन अब यह कर पाना उतना आसान नहीं होगा क्योंकि जनता भी इन सारे जो पेचीदे विषय थे उनको आसानी से समझने लगी है। जनता का जो आक्रोश है वो जन भावना वाली जो ये सोशल मीडिया जिसे कहा जाता है इसके माध्यम से प्रधानमंत्री को भी पता चल रहा है। सुप्रीम कोर्ट को भी पता चल रहा है। सुप्रीम कोर्ट के अलावा जुडिशरी के जितने भी कोर्ट हैं उन सबको यह दिखाई दे रहा है कि जनता इस समय ना तो गूंगी है ना बहरी है और ना ही अंधी है। साथ में मैं उन लोगों से भी कहना चाहूंगा जो ये कहते हैं कि इससे क्या हो गया सुप्रीम कोर्ट खारिज कर देगा। आप लोगों को इन चीजों के महत्व को समझना चाहिए। चाहे हिमाचल प्रदेश का मंदिर के दान का मामला हो। तमिलनाडु का जो कब्रिस्तान से कब्रें खोदने का मामला हो या इस तरीके के जो छिटपुट ये केसेस आ रहे हैं वो इसीलिए आ रहे हैं कि अब जो जज जो कॉलेजियम से ही चुनकर आए हैं लेकिन वो राष्ट्र के प्रति समर्पित है। देश और समाज के प्रति उनकी निष्ठा है। उनके अंदर एक हिम्मत आ रही है। तो हम लोगों को ऐसे जो फैसले हैं उनकी चर्चा भी करनी चाहिए। उनको सुनना भी चाहिए और उन्हें जानना भी चाहिए।
जैसा कि छत्तीसगढ़ में भी हुआ कि वहां किस तरीके से ग्राम सभा ने एक बोर्ड लगा दिया कि कन्वर्जन करने आने वाले पादरियों का गांव में प्रवेश वर्जित है और हाई कोर्ट ने इसको सही ठहराया था। इन लोगों को सपोर्ट तभी मिल सकता है कि जब जनता ऐसे फैसलों का स्वागत करें। ऐसे फैसले देने वाले जो साहसी जज हैं उनके समर्थन में खड़ी हो। अन्यथा जो पूरी की पूरी लॉबी है अगर आप की डेट में देखें तो हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में मिलाकर करीब 850 जज बैठते हैं। इनमें से कम से कम 20% यानी 150 जज तो ऐसे हैं जो राष्ट्र और समाज के लिए ही निर्णय लेना चाहते हैं। निष्ठा पूर्वक काम करते हैं। ईमानदारी से काम करते हैं। अगर इन लोगों को जनता का साथ मिलेगा। ऐसे फैसलों की चर्चा होगी। आप निश्चित मानिए ये संख्या 20% से 30% भी हो जाएगी, 40% भी हो जाएगी क्योंकि कोई भी परिवर्तन क्रांतिकारी रूप से नहीं आता है। समाज हो, दुनिया हो, कोई भी चीज हो, ज्यादातर जो परिवर्तन होते हैं वो क्रमिक होते हैं। भूकंप में ही परिवर्तन एकदम से आता है और वो नेचुरल होता है। उसमें व्यक्ति नहीं कर सकता है। तो ये जो बदलाव धीरे-धीरे देखने को मिल रहे हैं, जजों के अच्छे फैसले आ रहे हैं। का आपको सम्मान करना चाहिए और ऐसे जजों के साथ खड़े होना चाहिए। यही वजह है कि ढूंढ कर ऐसे पॉजिटिव और सकारात्मक फैसलों को आपके सामने रखते हैं जिससे लोगों को पता चले कि अगर जनता के अंदर आक्रोश है तो उसका पॉजिटिव असर होता हुआ भी दिख रहा है। जज भी हिम्मत दिखाते हुए ऐसे कड़े फैसले लेने की कोशिश करते नजर आ रहे हैं।
आपको नहीं पता कि ये जो जज चाहे गुवाहाटी हाई कोर्ट के हो, छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट के हो, हिमाचल के हो या तमिलनाडु की जो एन माला जज साहिबा थी इन सबके कैरियर पे भी प्रश्न चिन्ह लग जाता है जब ये राष्ट्र हित में कोई फैसला लेते हैं। क्योंकि कॉलेजियम के जो गिरोह वाले लोग हैं वो ऐसे जजों को मार्क कर लेते हैं। जैसे आपको याद होगा शेखर यादव के मामले में हुआ था। शेखर यादव ने कुछ भी गलत नहीं कहा था। उसके बावजूद उनके खिलाफ महाभियोग लाने तक की कोशिश कर दी गई और कपिल सिब्बल ने यह मुद्दा भी बना दिया था कि यदि यशवंत वर्मा के खिलाफ महाभियोग लाया जा रहा है तो जस्टिस शेखर यादव के खिलाफ भी आना चाहिए। तो ये अपने उस कॉलेजियम की कृपा को भी ताक पर रखकर अगर अच्छे फैसले दे रहे हैं तो आपका भी फर्ज बनता है कि इनकी तारीफ की जाए। इनके समर्थन में हम लोग खड़े हो जिससे और ज्यादा से ज्यादा हाई कोर्ट्स के अंदर ऐसे फैसले आए और जब ऐसे फैसले आएंगे तो न्याय की जीत होती हुई भी नजर आएगी और न्याय होता हुआ भी नजर आएगा।
जय हिंद।
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November 10, 2025 at 04:49PM
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