सीजीआई बदलने से कुछ बदलेगा इसकी उम्मीद करना बिल्कुल भी सही नहीं है
सीजीआई बदलने से कुछ बदलेगा इसकी उम्मीद करना बिल्कुल भी सही नहीं है
सीजीआई बदलने से कुछ बदलेगा इसकी उम्मीद करना बिल्कुल भी सही नहीं है
सुप्रीम कोर्ट में अब नए सीजीआई आ गए लेकिन सीजीआई बदलने से कुछ बदलेगा इसकी उम्मीद करना बिल्कुल भी सही नहीं है। और यह नए सीजीआई ने दिखा भी दिया है। बिहार में जब एसआईआर हुआ था तो पूरे एसआईआर के दौरान सीजीआई बने जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस बागची ने एसआईआर के खिलाफ सुनवाई की थी और बार-बार चुनाव आयोग को धमकाने की कोशिश की थी। अब उसी तर्ज पर फिर से पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु जैसे राज्यों की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं डाली गई है और उन पर आज सुनवाई हुई। सुनवाई के दौरान जो कुछ कहा गया जो कुछ सुना गया वो बेहद चिंताजनक है। चिंताजनक इसलिए है कि अब Sibbal Singhvi और Bhushan टाइप के वकीलों के द्वारा उन बीएएलओ के ऊपर खतरा उत्पन्न किया जा रहा है। उन्हें विलन बनाने की कोशिश की जा रही है जो चुनाव आयोग के लिए काम करते हैं। वास्तव में वह शिक्षा विभाग के पोस्टल विभाग के आंगनबाड़ी जैसे कार्यकर्ता होते हैं और उनको काम लिया जाता है। उन्हें एक एक्स्ट्रा काम दिया जाता है उसकी ट्रेनिंग दी जाती है। अब सिबल की तरफ से यह सवाल उठाया जा रहा है कि बीएलओ कौन होता है? यह तय करने वाला कि कौन भारत का नागरिक है और कौन नहीं है। दरअसल बीएलओ ही वह कर्मचारी या व्यक्ति होता है जो वोटर को चुनाव आयोग की तरफ से वो फॉर्म देता है। फॉर्म को लेता है। उसको वेरीफाई करता है। उसके डॉक्यूमेंट्स को देखता है और बाद में उन डॉक्यूमेंट्स को चुनाव आयोग को भेज देता है या ऊपर अपने ईआरओ को भेज देता है। चुनाव आयोग का कोई अपना स्टाफ नहीं होता है। वह इसी तरीके से जो दूसरे स्टाफ होते हैं, सरकारी कर्मचारी होते हैं, उनको अपने साथ जोड़कर अपनी कार्यवाही को पूरा करने का काम करता है। अब Sibbal यह कह रहा है कि वैसे तो चुनाव आयोग को ही यह अधिकार नहीं है कि वो किसी व्यक्ति की नागरिकता की जांच करें। तो जब इस पर जस्टिस बागची ने ये पूछा कि ऐसा तो पहले ही है तो इस पर सिबल ने कहा कि हम इस पर सवाल नहीं उठा रहे लेकिन हम प्रोसेस पर सवाल उठा रहे हैं। यानी पिछली बार जब सुनवाई हो रही थी तब भी यही तर्क था और यह कहा जा रहा था कि चुनाव आयोग नहीं बल्कि गृह मंत्रालय यह तय करता है कि कौन व्यक्ति देश का नागरिक है या नहीं है। इसके जवाब में सरकार के वकीलों ने और चुनाव आयोग के वकीलों ने स्पष्ट करके सुप्रीम कोर्ट को यह समझा दिया था कि यह चुनाव आयोग का अधिकार है कि वो यह जांच करें कि जो व्यक्ति वोटर के तौर पर अपना नाम लिखवाना चाहता है वो भारत का वास्तविक नागरिक है भी या नहीं। क्योंकि भारत के संविधान में उसी व्यक्ति को वोट देने का अधिकार है जो भारत का नागरिक है। भारत के संविधान की पहली लाइन भी कहती है कि We the People of India। इसका मतलब ये नहीं है कि कोई भी बांग्लादेशी रोहिंग्या अफगानिस्तानी पाकिस्तानी आकर भारत में ये डिसाइड करेगा कि भारत में क्या होना चाहिए?
कौन शासन करेगा, कौन चुना जाएगा, कौन सरकार चलाएगा।लेकिन सिबल सिंघवी टाइप के जो वामपंथी वकीलों का गिरोह है वह अपने आप को ग्लोबल सिटीजन मानते हैं और उनके लिए राष्ट्रभक्ति राष्ट्रवाद या सिटीजनशिप कुछ भी नहीं होता। उनके लिए सिर्फ और सिर्फ अधिकार होते हैं। वो भी व्यक्तिगत अधिकार होते हैं। राष्ट्र और समाज के अधिकारों को वो कुचल देना चाहते हैं। पश्चिम बंगाल, असम जैसे राज्यों में, बिहार जैसे राज्यों में और अब तो दिल्ली, मुंबई हर जगह ये घुसपैठियों ने जिस तरीके का उपद्रव मचाया हुआ है। उसके बाद बहुत पहले से इनको देश से बाहर निकाले जाने की बात चल रही थी। लेकिन वो अब तक देश में करोड़ों की संख्या में अगर रह रहे हैं उसके लिए अगर कोई सबसे ज्यादा जिम्मेदार है तो ये वकीलों के गिरोह और उनकी इन कुतों के आधार पर इनको संरक्षण देने वाली अदालतों के फैसले ही जिम्मेदार है। अब एसआईआर को लेकर जो बीएएलओ के ऊपर जिस तरीके से पैसे पहले जो पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री थी ममता बनर्जी ने सवाल उठाए, उसकी पार्टी ने सवाल उठाए, उनके खिलाफ प्रदर्शन किए। उसके बाद में झारखंड का एक मंत्री कहता है कि अगर बीएलओ आपके घर के बाहर आए तो उसको घर में ले जाकर बंद कर लो। और अब सिबल का यह कहना कि बीएलओ कौन होता है? यानी कि बीएलओ को ही ये लोग विलेन बनाकर पूरी की पूरी एसआईआर की जो प्रक्रिया है उसको जमीदोज कर देना चाहते हैं। उसको एक तरीके से खारिज करा देना चाहते हैं।
सोचिए कि चुनाव आयोग या चुनाव आयुक्त तो हर गांव हर कस्बे में हर घर तक नहीं जा सकते। वह तो बीएलओ के माध्यम से ही जाएंगे और अगर बीएएलओ के खिलाफ ही लोग इस तरीके की बातें करेंगे उनके साथ लड़ाई झगड़ा करेंगे उनसे ही सवाल पूछेंगे कि तुम कौन होते हो हमसे ये मांगने वाले कि हम बांग्लादेशी हैं या भारतीय हैं तो ये प्रक्रिया पूरी ही नहीं हो पाएगी और इस सबको एक सिरे से खारिज करने की बजाय सुप्रीम कोर्ट की एक सबसे महत्वपूर्ण बेंच क्योंकि उसमें अब सीजीआई भी है और एक जज भी है। बाकी करोड़ों केसेस की पेंडेंसी को ध्यान में ना रखते हुए वो इस तरीके की उलजूल बातों को सुन रहे हैं। उन पर ध्यान दे रहे हैं। उनके लिए समय भी दे रहे हैं। सुनवाई अगले दिन भी चलेगी। लेकिन यही सब होना है। जबकि इस मामले में साफ तौर पर संकेत भी दिया था सुप्रीम कोर्ट ने कि अब पूरे देश में एसआईआर होगी और उसके लिए वो किसी भी तरीके का ऑब्जेक्शन नहीं लेंगे। लेकिन बाद में फिर से चीजों को बदलकर नए तरीके से एप्लीकेशन ड्राफ्ट किए गए। पीआईएल ड्राफ्ट की गई और फिर से वो गिरोह पहुंच गया सुप्रीम कोर्ट में। पिछली बार जो उनकी दलीलें खारिज कर दी गई थी उनको उन्होंने दूसरे रूप में पेश कर दिया है और एक बार फिर से सुप्रीम कोर्ट को कंफ्यूज करने की कोशिश करते हुए सिब्बल और भूषण नजर आ रहे हैं। सवाल यह उठता है कि इस देश में एसआईआर क्यों नहीं होना चाहिए? हमारे देश में एक मोटा अनुमान है कि बांग्लादेश और रोहिंग्या या पाकिस्तानी इस तरीके के कम से कम 5 करोड़ अवैध घुसपैठिए रहते हैं। उनके खिलाफ ज्यादातर राज्य सरकारें कोई कार्यवाही नहीं करती। अगर कोई राज्य सरकार राष्ट्रवाद के तहत काम करते हुए कारवाई करती भी है तो फिर उस पर मुस्लिम तुष्टीरण करने वाली पार्टियां आरोप लगाती हैं कि वो मुसलमानों पर अत्याचार कर रही है क्योंकि ज्यादातर जो घुसपैठिए हैं वो एक मजहब से ही संबंध रखते हैं। और फिर वो लोग पहुंच जाते हैं सुप्रीम कोर्ट में। सुप्रीम कोर्ट तमाम तरीके के नेचुरल लॉज़ का हवाला देकर या ह्यूमन राइट्स का हवाला देकर या फिर व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हवाला देकर, व्यक्तिगत गरिमा का हवाला देकर इन सबको संरक्षण देने का काम करता है।
आपको याद होगा ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भी जब सैकड़ों की संख्या में बांग्लादेशी घुसपैठियों को देश की सीमा से बाहर खदेड़ा गया था तब प्रशांत भूषण कोर्ट पहुंच गया था और यह कहा था कि वो इस तरीके से बेइज्जती करके उन्हें देश से कैसे निकाल सकते हैं। जबकि ये लोग भूल जाते हैं कि ये एक एक सेटल्ड लॉ है। पार्लियामेंट का लॉ है कि अगर कोई व्यक्ति जो भारत में लीगल तरीके से घुसा है लेकिन उसकी लीगलिटी की अवधि खत्म हो चुकी है तो उसको डिपोर्ट किया जाता है यानी कि उसको सम्मान के साथ उसके देश भेजा जाता है। लेकिन अगर कोई व्यक्ति बिना किसी अधिकार के अवैध रूप से देश में घुसता है, घुसपैठिया होता है। उसको निष्कासित ही किया जाता है। यानी कि देश से बाहर फेंका जाता है। उसके कोई अधिकार नहीं होते। उसका कोई सम्मान नहीं किया जाता है। और ये अमेरिका से भी भारतीय जो अवैध रूप से भारतीय वहां रह रहे थे उनको जिस तरीके से हथकड़ी लगाकर भारत भेजा गया था उसमें भी स्पष्ट हो गया था। तब भी बहुत से लोगों ने ये सवाल उठाए थे कि भारत के नागरिकों को बेइज्जत करके अमेरिका से भगाया जा रहा है। मोदी सरकार कुछ नहीं कर रही है। देखिए अपराध करने के ऊपर अगर सजा मिलती है तो सरकार उसमें कुछ नहीं कर सकती क्योंकि अपराध के लिए सजा मिलना ही एक सामाजिक तौर पर स्वीकार्य स्थिति है।उसी तरीके से जो घुसपैठिए हैं उनके कोई अधिकार नहीं होते। वह अपराधी होते हैं और उनको अपने राष्ट्र और समाज की रक्षा के लिए देश से बाहर फेंकना ही एक सही कार्य होता है।
लेकिन सिबल भूषण जैसे लोग उनके बचाव में उतर जाते हैं क्योंकि इनको जो जमीयत उलेमाएं जैसी संस्थाएं हैं या विदेशी एनजीओ है उनकी तरफ से मोटी रकम मिलती है। इस तरीके के लोगों का बचाव करने के लिए इन लोगों के लिए पैसा ही सब कुछ होता है। ना राष्ट्र कुछ होता है, ना संविधान कुछ होता है, ना समाज कुछ होता है। इन्हें सिर्फ और सिर्फ पैसा कमाना है और पैसा कमाने के लिए ये किसी भी हद तक जा सकते हैं। कोई भी कुतर्क दे सकते हैं। लेकिन सवाल फिर सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के ऊपर उठता है कि वकील तो पैसे के लिए ऐसा कर रहा है। ये लोग क्यों उन वकीलों की फालतू बकवास को सुनने के लिए बैठे हैं? जबकि देश की अदालतों के पास हजारों लाखों की संख्या में जो केसेस पेंडिंग है उनको सुनने के लिए वक्त नहीं है। उनको लिस्ट करने के लिए भी वक्त नहीं है। लेकिन इस तरीके के वकीलों के द्वारा लाए गए कुतर्कों पे आधारित याचिकाओं को सुनने में वो जिस तरीके से टाइम की वेस्टिंग करते हैं। जिस तरीके से उनकी बकवास सुनते हैं वो बड़ा सवाल है और इस पर जनता को ही इनसे जवाब मांगना पड़ेगा।
क्योंकि भारत की हायर जो जुडिशरी है वह ना सरकार की मानती है ना राष्ट्रपति या पार्लियामेंट की मानती है। उसको सिर्फ अगर कोई उसके रास्ते पर ला सकता है तो वो इस देश की जनता है। जनता जब तक एकजुट होकर इन लोगों से सवाल नहीं करेगी तब तक ये लोग डरने वाले नहीं है। क्योंकि इन्हें पता है सरकार हमारा कुछ बिगाड़ नहीं सकती। अगर ये जो जज होते हैं चाहे हाई कोर्ट के हो या सुप्रीम कोर्ट के किसी जघन्य अपराध में लिप्त भी पाए जाए तब भी सरकार इनके खिलाफ एफआईआर नहीं कर सकती है क्योंकि ऐसा सुप्रीम कोर्ट के एक डिसीजन से एक प्रेसिडेंस बन गया है। बहुत से लोग सवाल करते हैं कि सरकार बड़ी है। सरकार उस प्रेसिडेंस को खारिज कर दे। ऐसा नहीं है। जब तक उस प्रेसिडेंस के निर्णय को पार्लियामेंट में बहुमत से खारिज करके कानून नहीं बनाया जाएगा तब तक वो लागू रहता है। या फिर उस प्रेसिडेंस को या जो निर्णय है उससे बड़ी कोई बेंच खारिज ना कर दे तब तक वो लागू रहता है। और यह जो जजों के खिलाफ एफआईआर ना करने का मामला है यह पिछले 30- 35 सालों से चल रहा है। यही वजह है कि यशवंत वर्मा के घर पर करोड़ों रुपए मिले। उसके बावजूद उसके खिलाफ एफआईआर नहीं हो पाई क्योंकि भारत के दो रिटायर हो चुके सीजीआई ने उसकी परमिशन नहीं दी और उम्मीद तो यह है कि सीजीआई बने सूर्यकांत भी उसकी परमिशन नहीं देने वाले हैं। इन लोगों ने अपने लिए एक इम्यूनिटी बना ली है। इसलिए इन लोगों को रास्ते पर केवल वही जनता ला सकती है जो वास्तव में संविधान के अनुसार इस देश की संप्रभु है। क्योंकि जो राष्ट्रपति होते हैं, जो प्रधानमंत्री होते हैं, वह जनता के प्रतिनिधि के तौर पर काम करते हैं और उन प्रतिनिधियों की यह बात सुनने को राजी नहीं है। दूसरी तरफ जितने भी सीजीआई भाषण करते थे, जैसे कि बी आर गवई थे या सूर्यकांत भी विदेशों में भाषण करते थे तो ये कहने की कोशिश करते थे कि हम संविधान को सर्वोच्च रख रहे हैं क्योंकि ये जनता के हितों के लिए जरूरी है। लोकतंत्र के लिए जरूरी है।
अब अगर जनता इनसे यह पूछे कि यह जो कॉलेजियम सिस्टम है, यह जो आपका एक कोर्ट कल्चर चल रहा है, जिसमें कुछ नामी गिरामी वकीलों की मनमर्जी से आप उनके केसेस सुनते हैं, उसके फैसले देते हैं। यह कैसे चल सकता है? जनता अगर इसके खिलाफ राय देने लगेगी, तो निश्चित तौर पर इनके अंदर डर भी आएगा और यह मजबूर भी होंगे कि यह इस तरीके के ड्रामेबाजी को बंद करें। उसके लिए आप सबको जागरूक भी होना पड़ेगा। अपनी राय भी व्यक्त करनी पड़ेगी।जब बहुत सारे लोग अपना फर्ज निभाते हैं तो आप निश्चित मानिए उसका असर भी होता है। हम बार-बार आपको बताते रहे हैं कि अभी पिछले दिनों जो निर्णय आए हैं कई सारे उनमें जनता का जो आक्रोश है उसकी वजह से बहुत सारे जजों में हिम्मत आई है। वो राष्ट्रभक्ति को राष्ट्र की एकता अखंडता को राष्ट्र के सम्मान को सबसे ऊपर रखने में अब हिचक नहीं रहे हैं। इसलिए आप जितनी ज़्यादा पॉज़िटिव इस मामले में आगे बढ़ेंगे, उतना ही असर होता हुआ भी दिखाई देगा। हमारी कोशिश तो यह थी कि जस्टिस सूर्यकांत भारत के सीजीआई ना बन पाए।लेकिन क्या करें? लोग उस हिसाब से जागरूक नहीं हुए। लेकिन अभी भी वक्त है क्योंकि हमें इस मामले को आगे बढ़ाते जाना है जिससे आने वाले जो लाइन में लगे हुए हैं वो इनसे भी ज्यादा रिकॉर्ड धारी हैं वो भारत के सीजीआई अगर बनेंगे तब क्या स्थिति होगी। आप सोचिए कि एसआईआर का मामला सिलट चुका है। उसके बावजूद किस तरीके से अब फिर से सुनवाई उस पर हो रही है। वहां कोई नियम नहीं है। कोई परंपरा नहीं है। कोई न्याय का सिद्धांत नहीं है। न्याय के सिद्धांतों के नाम पर आयातित सिद्धांत है। जो कि सिर्फ और सिर्फ अपराधियों के संरक्षण के लिए है। अपराधियों के बचाव के लिए है। उन्हें न्यायिक स्वतंत्रता के नाम पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता व्यक्तिगत गरिमा के नाम पर राहत देने के लिए है। जनता के लिए नहीं है। अगर जनता के लिए रहे होते तो देश की अदालतों में 5 करोड़ केसेस पेंडिंग नहीं होते। सुप्रीम कोर्ट में 80 हजार केसेस पेंडिंग नहीं होते। हाई कोर्ट्स के अंदर 60 लाख से ज्यादा केसेस पेंडिंग नहीं होते। ये जो वकीलों और जजों का एक गठजोड़ है, इसको तोड़ना पड़ेगा।दुनिया के किसी भी देश में इस तरीके से जज ही जजों की नियुक्ति नहीं करते हैं अपने भाई, भतीजों और चेलों के बीच से। ऊपर से तुर्रा यह है कि सीजीआई जब कोई व्यक्ति बन जाता है तो वह इसका बचाव करता है और इसको सबसे अच्छा बताता है। लेकिन फिर वो यह नहीं बता पाता कि अगर यह सबसे अच्छा है तो फिर पार्लियामेंट के लिए क्यों लागू नहीं किया जाता। हर नौकरी में इसको लागू कर दिया जाए। नौकरी की भर्ती में पैसा खर्च नहीं होगा। आराम से भर्तियां हो जाएंगी। एक डीएम यह तय कर देगा कि अगला डीएम कौन बनेगा? एसडीएम यह तय कर देगा, अगला एसडीएम कौन बनेगा? प्रधानमंत्री यह तय कर देंगे कि अगली कैबिनेट में कौन-कौन होगा, कौन प्रधानमंत्री होगा, गृह मंत्री होगा। चुनाव कराने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। राष्ट्रपति जाने से पहले यह तय कर देंगे कि अगला राष्ट्रपति कौन होगा।
अगर कॉलेजियम व्यवस्था इतनी ही अच्छी है तो फिर हर डिपार्टमेंट में इसको लागू कर दो ना। वो आप करेंगे नहीं और अगर कोई करने की कोशिश भी करेगा तो आप उसके खिलाफ खड़े हो जाएंगे। और ऐसा होता भी है। अगर कहीं पर किसी की सीनियरिटी को बाईपास किया जाता है तो कोर्ट में केस चलता है और उस पर सवाल उठाए जाते हैं। लेकिन उसी नियम और उसी कानून को आप अपने यहां मानने को राजी नहीं है। वहां आप कहते हैं कि यह न्यायिक स्वतंत्रता के लिए जरूरी है। देश की जनता को यह बताना पड़ेगा कि वह न्यायिक स्वतंत्रता के नाम पर सुप्रीम कोर्ट हाई कोर्ट के जजेस की स्वच्छंदता को कभी स्वीकार नहीं करेगी ना करती है।
Jai Hind
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