न्यायपालिका के बारे में जागरूकता फैले- पूरे देश में एक जनमत संग्रह कराया जाए
न्यायपालिका के बारे में जागरूकता फैले- पूरे देश में एक जनमत संग्रह कराया जाए
न्यायपालिका के बारे में जागरूकता फैले- पूरे देश में एक जनमत संग्रह कराया जाए
पावर करप्ट्स एंड अबब्सोल्यूट पावर करप्स अबब्सोलटली इसका मतलब यह है कि सत्ता या शक्ति आ जाने से व्यक्ति भ्रष्ट हो जाता है और बहुत ज्यादा सत्ता या शक्ति आ जाने से उस व्यक्ति के बहुत ज्यादा भ्रष्ट हो जाने की संभावना है। अब यह बात हम क्यों कर रहे हैं? उससे पहले आपको बता दें कि हमारे भारत के संविधान में जो सेपरेशन ऑफ पावर की बात कही गई है उसमें से जो सरकार है उसके तीन अंग होते हैं। कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका। और लोकतंत्र के बारे में कहा जाता है कि लोकतंत्र के चार स्तंभ होते हैं। कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका और मीडिया को इसका चौथा स्तंभ कहा जाता है।
लेकिन सोचिए कि यह तीनों शक्तियां कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका या फिर चौथी शक्ति मीडिया भी अगर किसी एक व्यक्ति में निहित हो जाए या एक ही व्यक्ति इन तीनों या चारों क्षेत्रों में दबदबा रखता हो तो वो व्यक्ति कितना ज्यादा पावरफुल हो सकता है और ऐसा उदाहरण भारत में तो क्या पूरी दुनिया में एक ही है और वो अकेला व्यक्ति है जो कार्यपालिका का भी अंग रहा है। विधायिका का अंग अभी भी है। न्यायपालिका का अंग अभी भी है। और मीडिया का भी अंग आप उसको कह सकते हैं क्योंकि उस व्यक्ति ने एक चैनल भी बनाया था। टीवी चैनल बनाया था। हालांकि वो छ महीने चला और उसके बाद वो अब दूसरे तरीके से YouTube के माध्यम से भी मीडिया में अपनी जो धमक है वह दिखाने की कोशिश करता हुआ नजर आ रहा है। अब तक आप लोग उस व्यक्ति के बारे में बहुत थोड़ी सी आपको कल्पना हो रही होगी या उसकी तरफ आप सोचते हुए नजर आ रहे होंगे लेकिन अभी भी आप उस व्यक्ति को नहीं समझ पाए हो। यह व्यक्ति न्यायपालिका में पिछले अगर कहा जाए तो 40 सालों से इसकी धमक है। राजनीति की बात की जाए तो राजनीति में भी यह करीब 35 सालों से इसकी धमक देखी और सुनी जा सकती है। हालांकि मीडिया के मामले में 2019 का जब लोकसभा चुनाव हुआ था उससे करीब चार महीने पहले इसने एक बड़ी तथाकथित बड़ी पत्रकार को लेकर एक टीवी चैनल चलाया था जिसका नाम था तिरंगा टीवी और उसको इसने इसलिए चलाया था कि जिससे भारत के उस समय के प्रधानमंत्री को चुनाव जीतने से रोका जा सके नैरेटिव फैलाया जा सके संविधान बात करता है सेपरेशन ऑफ पावर की। लेकिन यह व्यक्ति संविधान के उस सेपरेशन ऑफ पावर यानी कि शक्ति के प्रथकरण के सिद्धांत की हंसी उड़ाता हुआ नजर आता है। यह व्यक्ति मंत्री पद पर रहता है। विधायिका में रहता है। सांसद के तौर पर यह तो बहुत से लोगों के साथ हो जाता है। क्योंकि जो विधायिका का सदस्य होता है वही मंत्री बनता है। लेकिन उसके साथ-साथ यह उसी समय पर न्यायपालिका में भी अपना हस्तक्षेप रखता है। और आज की डेट में जब यह विधायिका का मेंबर है तब भी यह न्यायपालिका में बड़ा हस्तक्षेप रखता है। या फिर आप कह सकते हैं कि न्यायपालिका के क्षेत्र में आज भी इसकी तूती बोलती है।इस सबके पीछे एक बड़ा कारण यह है कि यह जो व्यक्ति है, इसकी जो कहानी न्यायपालिका में दबदबे की शुरू हुई थी। अब वो कहानी जिस परिवार से संबंधित केस में इसको दबदबा मिला था या उससे पहचान मिली थी उसी परिवार के केस को लड़ते हुए ऐसा लग रहा है कि इसका जो पतन है वो अब पास में आता जा रहा है। लालू यादव जो चारा घोटाले के आरोपी थे उनका केस लड़ा था इस सीनियर वकील ने जिसको सीनियर एडवोकेट की जो पदवी है केवल 35 साल की उम्र में मिल गई थी। आप सोचिए 40 40 45 45 साल के होने के बाद 50 साल तक के होने के बाद बड़ी मुश्किल से जो वकीलों वकील होते हैं मेहनत करते हैं या उनकी कहीं पहुंच नहीं होती तो वो 55 साल में भी सीनियर एडवोकेट नहीं बन पाते हैं। लेकिन चूंकि ये जो वकील महोदय हैं इनके पिता अटर्नी जनरल रहे थे पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट के इसलिए इन्हें 35 साल की उम्र में सीनियर एडवोकेट का तमगा मिल गया था। और सीनियर एडवोकेट का एक ऐसा तमगा होता है जिसके अपने फायदे होते हैं केसेस को लिस्ट कराने में और केसेस को डिसाइड कराने में भी उनको बहुत फायदा मिलता है। मैं यह आरोप नहीं लगा रहा हूं। ये लीगल फ्रेटरनिटी में बहुत अच्छी तरीके से सबको पता है। अभी भी मैंने उस व्यक्ति का नाम नहीं लिया है। लेकिन बहुत से लोग समझ गए होंगे कि मैं किसकी बात कर रहा हूं।
आप सही समझ रहे हैं। मैं भारतीय न्याय व्यवस्था के या फिर कहें कि वकीलों की फ्रेटरनिटी के सबसे पावरफुल वकील कहे जाने वाले कपिल सिब्बल की ही बात कर रहा हूं। यह कपिल सिंबल महोदय अटर्नी जनरल के बेटे रहे हैं। इनके एक भाई हाई कोर्ट में जज हैं। दो बेटे भी वकालत में अच्छा खासा नाम और पैसा कमा रहे हैं। आज की डेट में अगर देखा जाए तो इन्हें भारत का सबसे ज्यादा कमाई करने वाला वकील कहा जा सकता है।
पूरे देश में चारा घोटाले में लालू की बदनामी होने के बाद लालू प्रसाद यादव का केस लड़ने के लिए भी कपिल सिब्बल ही खड़े हुए थे। और उसका इनाम लालू प्रसाद यादव ने इन्हें राज्यसभा का मेंबर बनाकर दिया था। हालांकि उससे पहले यह कांग्रेस पार्टी की तरफ से लोकसभा का चुनाव लड़ चुके थे और उसके बाद कांग्रेस पार्टी ने इन्हें अपने साथ मिला लिया और उसके बाद इनकी राजनीतिक करियर आगे बढ़ता ही गया। कांग्रेस की तरफ से यह प्रवक्ता के तौर पर टीवी चैनलों पर बोलते हुए नजर आए।
बाद में मनमोहन सिंह की जब सरकार बनी तो उसमें इन्होंने कई सारे मंत्रालय संभाले और इनकी दलीलें तो इस कदर होती थी कि जब दूरसंचार घोटाला हुआ था तो संसद में बहस के दौरान इन्होंने कहा कि ये तो जीरो लॉस हुआ है। लॉस तो हुआ ही नहीं है। जबकि भारत के सीएजी ने आरोप लगाए थे कि हजारों करोड़ रुपए का घोटाला हुआ है। चाहे कोयला घोटाला हो, चाहे पूंजी घोटाला हो। लेकिन कपिल सिब्बल जैसे अदालतों में अपनी दलीलें देते हैं वैसे ही संसद में हंसहंस कर ये मजाक उड़ाते नजर आए कि जीरो लॉस हुआ है। ये कहां से कैलकुलेशन हो गया? कहां से ये घोटाला हो गया? और उस जीरो लॉस थ्योरी के ऊपर इनकी काफी आलोचना भी हुई थी। लेकिन उन्हें इससे फर्क नहीं पड़ता है और वह लगातार उसी राह पर चलते जा रहे हैं। वह लगातार ऐसी चीजों की दलीलें देते रहते हैं जो ना संवैधानिक होती है ना नैतिक होती है और ना ही राष्ट्र हित में होती हैं।
मनमोहन सिंह की गवर्नमेंट 2013 में लक्षित हिंसा का बिल लेकर आने वाली थी। जिसके तहत देश में अगर कहीं भी दंगा फसाद होगा, लड़ाई झगड़ा होगा दो समुदायों के बीच में तो जो बहुसंख्यक समुदाय है उससे जुड़े हुए व्यक्तियों को ही अपराधी और दोषी माना जाएगा। हालांकि यह कानून तो पास नहीं हो पाया लेकिन 2014 के बाद ज्यादातर अदालतों में ऐसा लगता है कि अदालतों में यह कानून अभी लागू हो चुका है। क्योंकि आप जब भी देखेंगे कि कोई भी इस तरीके का मामला आता है अगर व्यक्ति बहुसंख्यक समाज से जुड़ा हुआ है तो फिर उसके लिए फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन नहीं मिलेगी। उस पर कार्यवाही हो जाएगी। उसको जेल हो जाएगी। उसको जमानत नहीं मिलेगी। लेकिन अगर व्यक्ति भारत का दो नंबर का बहुसंख्यक समुदाय है उससे जुड़ा हुआ है तो फिर अदालतों की जो सोच है, अदालतों के जो जजमेंट है वो लच्छित हिंसा वाली आईडियोलॉजी के आधार पर ही आएंगे। कुणाल कांबरा को जमानत मिल जाएगी। जुबेर को जमानत मिल जाएगी। चाहे सजल इमाम जैसे लोग हो या दूसरे कन्हैया कुमार जैसे लोग हो इनके ऊपर नरमी बरती जाएगी क्योंकि ये बहुसंख्यक समाज के खिलाफ बात कर रहे हैं। अल्पसंख्यक समाज के खिलाफ नहीं। यानी एक ही अपराध के लिए दो व्यक्तियों के लिए जजमेंट अलग-अलग होंगे।
इसका ताजा उदाहरण अभी देखने को आया कि जब दो एक ही उम्र की लड़कियों ने एक जैसा अपराध किया लेकिन एक लड़की को तो हाईकोर्ट ने जमानत दिला दी सरकार को फटकार लगा दी पुलिस को फटकार लगा दी और दूसरे मामले में एक लड़की जिसने माफी भी मांग ली जिसने अपनी पोस्ट भी डिलीट कर ली और गलती का एहसास भी उसे हुआ लेकिन उसको अदालत ने 14 दिन की रिमांड पर भेज दिया। अब आप कहेंगे कि इसका कपिल सिबल से क्या मतलब है? जी हां बिल्कुल मतलब है क्योंकि ये जो वकील होते हैं ये इतने पावरफुल होते हैं कि इनकी पावर के आगे पूरी जुडिशरी ताता थैया करती हुई नजर आती है। ये न्यायालयों के ना केवल जो डिसीजन होते हैं उनको बदलने की ताकत रखते हैं। अपराधियों को जमानत दिलाने की ताकत रखते हैं बल्कि न्यायालयों को प्रेसिडेंस स्थापित करने में भी इनकी भूमिका रहती है। ये जो कॉलेजियम का हल्ला आजकल देखा जा रहा है, इस कॉलेजियम को बनवाने में भी चार बड़े वकीलों की बहुत बड़ी भूमिका है। और उन चार बड़े वकीलों में से एक कपिल सिब्बल भी हैं। बाकी के तीन तो इस दुनिया में नहीं रहे लेकिन कपिल सिब्बल बचे हुए हैं। जब एनजीएसी का मामला सुप्रीम कोर्ट में आया था तो तब भी तीन बड़े वकीलों की बड़ी भूमिका रही थी कोर्ट को अपना फैसला दिलवाने में। और वो तीन बड़े वकील कौन थे? फली एस नरीमन जो कॉलेजियम वाले मामले में भी थे। दुष्यंत दबे ये जो वकील होते हैं ये बहुत बड़े स्तर पर इस तरीके की कारवाई करवाने में कामयाब हो जाते हैं। अब क्योंकि कपिल सिबल उसमें नहीं बोल सकते थे। कपिल सिब्बल तो वहां रहे थे सत्संग में और उन्होंने उसके पक्ष में भी वोटिंग की थी। लेकिन यह सब जो लोग हैं वह एक ही ग्रुप का हिस्सा है और तीसरे वकील जो थे एनजीएसी वाले मामले में वो थे प्रशांत भूषण। कॉलेजियम के मामले में उनके पिताजी शांति भूषण थे और एनजीएसी के मामले में प्रशांत भूषण थे।
करीब 10- 12 वकील हैं जिनका दबदबा चलता है इस देश में जो जैसे चाहे किसी भी लॉ को इंटरप्रेट करा लेते हैं या मिस इंटरप्रेट करा लेते हैं और ऐसा लगता है कि ये जो कुछ कह दे वही कानून बन जाता है। या फिर अदालतें उसी के आधार पे उसी से मिलती जुलती डिसीजन देने लगती हैं। आप जितने भी केस देखेंगे अगर उन केसेस में कपिल सिब्बल, अभिषेक मनु सिंवी, दुष्यंत दबे, प्रशांत भूषण जैसे गिने-चुने अगर वकील खड़े हुए हैं तो फिर उसके फैसले को आप पहले से अस्यूम कर सकते हैं। उसको पहले से अनुमान लगा सकते हैं। और कपिल सिब्बल की आप ताकत का अंदाजा इसी से लगा सकते हैं। हमने आपको बता दिया कि यह कार्यपालिका में मंत्री रह के अपना दबदबा दिखा चुके हैं। संसद में राज्यसभा और लोकसभा दोनों में अपनी ये वो दिखा चुके हैं ताकत और न्यायपालिका में तो ये 1993 से 1983 से जब से ये सीनियर एडवोकेट बने हैं तभी से अपने कारनामे दिखाते आ रहे हैं।
मीडिया के तौर पर तिरंगा टीवी इन्होंने चलाया। बरखादत्त को उसमें रखा गया था। हालांकि बाद में छ महीने बाद बरखाद ने इनके और इनकी पत्नी के ऊपर आरोप लगाकर वो अलग हो गई थी। इनसे हर्जाना भी मांगा था। लेकिनकि कपिल सिब्बल का अदालतों में दबदबा है इसलिए वह मामला फिर आर्बिट्रेशन में चला गया। मध्यस्था के बीच के अंदर चला गया और इनको कोई सजा नहीं हुई। लेकिन इनका दबदबा बिजनेस कम्युनिटी में भी है। अभी जब यह चौथी बार एससीबीए यानी कि सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष थे तो इन्होंने अपने मित्रों से कहकर 50 करोड़ का फंड इकट्ठा कर दिया। अब आप इसे उगाई कह सकते हैं। हालांकि इन्होंने तो यह कहा था कि मेरे पर्सनल बड़े पैसे वालों ने यह ₹50 करोड़ दिए हैं। अब फिर आते हैं उस बात पर कि इनका पतन कैसे होता हुआ दिख रहा है। अभी जो ताजा मामला आया है हमने आपको बताया कि लालू यादव के चारा घोटाले के केस के बाद यह बहुत ज्यादा फेमस हुए थे। इनको फेम मिला और ये राज्यसभा भी पहुंचे। अब लालू परिवार के ही एक केस जो कि है नौकरी के बदले जमीन या जमीन के बदले नौकरी का जो मामला है उसमें हाई कोर्ट में इनकी दलीलें बुरी तरीके से फ्लॉप हो गई और लालू को जो ये या लालू के परिवार को जो ये राहत दिलाना चाहते थे वो नहीं मिल पाई। मामला यह था कि लालू यादव के रेल मंत्री रहते हुए बहुत सारी नौकरियां निकाली गई और उन नौकरियों के बदले एक कंपनी या सोसाइटी बनाई गई थी जिसमें तेजस्वी यादव भी थे और उस सोसाइटी के लिए जमीनें दान कराई जाती थी जिन लोगों को नौकरी दी जाती थी उनसे अब यह मामला सीबीआई के ने इसका फाइल किया एफआईआर की उसमें चार्जशीट लगी और इस मामले में सजा भी हुई इसका का डिसीजन भी आने को हुआ। लेकिन अब जब लोअर कोर्ट से पीएमएलए जो पीएम एमएलए कोर्ट है उससे जब इसका फैसला आया तो हाई कोर्ट पहुंच गए कपिल सिब्बल और उन्होंने यह दलील दी कि सीबीआई ने जरूरी परमिशन नहीं ली थी लालू यादव के खिलाफ एफआईआर करने से पहले।
इस देश में अगर आम आदमी अपराध करता है, कोई सामान्य व्यक्ति अपराध करता है तो किसी तरीके की परमिशन की जरूरत नहीं होती। सीधे तौर पर जो एजेंसियों को पावर मिली हुई है उसी के तहत मामला दर्ज हो जाता है। लेकिन कोई नेता अपराध करता है, कोई अधिकारी अपराध करता है, कोई मंत्री अपराध करता है तो फिर उसके खिलाफ पहले परमिशन लेनी पड़ती है। तभी आप जांच कर सकते हैं। लेकिन जजों के मामले में तो और ज्यादा कड़ा नियम बना हुआ है। वो भी बी रामा स्वामी के ही केस से रिलेटेड है। जिसमें यह कह दिया गया कि हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजेस के खिलाफ कितने भी गंभीर मामले हो, कितना भी बड़ा अपराध हो, कितना भी बड़ा कदाचार हो, एफआईआर या जांच नहीं हो सकती। जब तक कि सुप्रीम कोर्ट के सीजीआई उसकी परमिशन ना दे दे। और सीजीआई की परमिशन कितनी मुश्किल है ये तो पूरा देश जान चुका है यशवंत वर्मा के मामले में। इतने बड़े तौर पर हल्ला मचा, करोड़ों रुपए की होली जली और बाद में जांच कमेटी भी बनी, इनह हाउस कमेटी बनी। उसने भी मान लिया कि हां यह व्यक्ति अपराधी है। उसके बावजूद सीजेआई ने उस व्यक्ति के खिलाफ एफआईआर करने की परमिशन नहीं दी। बल्कि वो सुप्रीम कोर्ट के जजेस के खिलाफ कितने भी गंभीर मामले हो, कितना भी बड़ा अपराध हो, कितना भी बड़ा कदाचार हो, एफआईआर या जांच नहीं हो सकती। जब तक कि सुप्रीम कोर्ट के सीजीआई उसकी परमिशन ना दे दे। और सीजीआई की परमिशन कितनी मुश्किल है ये तो पूरा देश जान चुका है यशवंत वर्मा के मामले में। इतने बड़े तौर पर हल्ला मचा, करोड़ों रुपए की होली जली और बाद में जांच कमेटी भी बनी, इनह हाउस कमेटी बनी। उसने भी मान लिया कि हां यह व्यक्ति अपराधी है। उसके बावजूद सीजेआई ने उस व्यक्ति के खिलाफ एफआईआर करने की परमिशन नहीं दी। बल्कि वो पूरे मामले को प्रेसिडेंट और प्रधानमंत्री को सौंप कर चले गए। जब इसको लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका डाली जाती है तो वहां बैठे हुए जजों ने भी कह दिया कि तुम्हें एफआईआर करानी है तो प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति से संपर्क करो और उनमें एक जज ऐसे भी थे जिन्हें ईमानदार कहा जाता है। अच्छे फैसले उन्होंने दिए लेकिन वो भी जब यह मामला आया तो वो भी सीजीआई के उस डिसीजन के साथ खड़े होते हुए नजर आए। मैं बात कर रहा हूं एएस ओका की क्योंकि एएस ओका की खंडपीठ ने यह फैसला दिया था मैच्युर नैनदुमपारा की याचिका पर कि जाइए आप अगर एफआईआर करानी है अब मामला प्रधानमंत्री राष्ट्रपति के पास है उन्हीं से परमिशन लीजिए। दूसरे सीजीआई आए। उन्होंने भी इस मामले में एफआईआर को लेकर अभी तक कोई इनिशिएटिव लेने की कोशिश नहीं की है। वो चाहते तो एजेंसियों को इस जज के खिलाफ एफआईआर करने का निर्देश दे सकते थे।
महाभियोग का क्या होता? महाभियोग की प्रक्रिया है वह तो केवल हटाने के लिए है। एफआईआर तो उससे पहले भी हो सकती है और अगर एफआईआर होती है तो यशवंत वर्मा के ऊपर नैतिक दबाव होगा कि वो अपने पद से इस्तीफा दे जिसको अभी तक वो नहीं दे रहे हैं। महाभियोग में क्या होता है आप समझ सकते हैं कि जब वीर राणा स्वामी का मामला आया था जिसमें कपिल सिब्बल ने दलीलें दी थी उस मामले में कांग्रेस पार्टी ने सदन का बहिष्कार कर दिया था। भारतीय जनता पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी और दूसरी पार्टियों ने उसके महाभियोग के पक्ष में वोट दिया था। 196 वोट उसके थे और 205 वोट एक्सटेंड हो गए थे। वहां से बहिष्कर कर दिया था उन्होंने सदन का। तो इस वजह से वो महाभियोग का मामला गिर गया था। तो क्या अभी ऐसा नहीं हो सकता है? बिल्कुल हो सकता है। सरकार को नीचा दिखाने के लिए कोई बड़ी बात नहीं है कि कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियां सदन से बहिरगमन कर जाए या संयंत्र का बहिष्कार करके बाहर निकल जाए। तो सबसे बड़ा जो जो एक नैतिक जिम्मेदारी थी वो भारत के सीजीआई के ऊपर थी। पहले संजीव खन्ना के साथ थी। अब बी आर गवई के ऊपर है कि अगर वो खुद को ईमानदार दिखाना चाहते हैं वो ये दिखाना चाहते हैं कि देश की न्यायपालिका जनता के साथ है भ्रष्टाचार के साथ नहीं है तो उन्हें परमिशन देनी चाहिए थी या दे देनी चाहिए लेकिन सवाल यही है कि इस देश को इस देश की न्यायपालिका को क्या दर्जन भर वकील और कुछ जज मिलकर अपने हिसाब से ऐसे ही चलाते रहेंगे कॉलेजियम के नाम पर जूनियर जजों को, सीनियर जजों को बाईपास करके सुप्रीम कोर्ट और चीफ जस्टिस बनाया जाता रहेगा हाई कोर्ट्स का। क्या महिलाओं को प्रतिनिधित्व नहीं मिलेगा? दूसरे वर्गों को प्रतिनिधित्व नहीं मिलेगा। वहां केवल भाई भतीजावाद चलेगा। अब बहुत से लोग सवाल उठाते हैं कि इसको लेकर सरकार कोई कानून क्यों नहीं बनाती? सरकार ने कानून बनाया। उसको इन्होंने सीधे तौर पर असंवैधानिक घोषित कर दिया। जबकि वो एक क्स्टिट्यूशनल अमेंडमेंट था 99वा।लेकिन उन्होंने हवाला दिया कि यह बेसिक स्ट्रक्चर ऑफ क्सिट्यूशन के खिलाफ है। जबकि उसी बेंच में जो पांच जजों की बेंच थी एक जज थे जज थी चलमेश्वर उन्होंने यह कहा था कि नहीं ये कानून सही है। उनकी डिसेंट को नहीं माना गया। चार जज जो उसके खिलाफ थे कानून के उन्होंने उसको असंवैधानिक घोषित कर दिया। सरकार ने भी रिव्यु पिटीशन फाइल नहीं की। सरकार ने भी उस पर प्रेसिडेंशियल रेफरेंस नहीं मांगा। पता नहीं वजह क्या थी। उन्हें डर था कि शायद वो उनकी रिव्यु पिटीशन भी ऐसे ही खारिज हो जाएगी या वो विवाद नहीं चाहते। जो भी वजह रही हो। यानी आज की डेट में कॉलेजियम के खिलाफ, न्यायपालिका के खिलाफ सरकार कुछ भी करने की स्थिति में नहीं है। सरकार के पास उतना बहुमत भी नहीं है कि वो फिर से एक बार ऐसा कोई मजबूत कानून या मजबूत विधेयक बना के पास कर दे। फिर सवाल उठता है तो क्या फिर देश इसी तरीके से न्यायपालिका और इन वकीलों का जो गठजोड़ है उसकी मनमानी को सहता रहेगा?
उसका एक रास्ता है और वो है जनमत संग्रह। इसके बाद जब 19 जो 2015 में एनजेसी का केस चल रहा था उस समय मैथ्यूस नेंदुपारा ने सुप्रीम कोर्ट में भी उठाई थी और उन्होंने कहा था कि अगर न्यायपालिका इस तरह नहीं सुधरेगी तो फिर क्या इस देश के नागरिकों के पास केवल और केवल रेफरेंडम एक रास्ता रह जाता है? उन्होंने इसका उदाहरण भी दिया कि ऑस्ट्रेलिया में इसी तरह से एक केस हुआ था और तब ऑस्ट्रेलिया की जनता ने 80% लोगों ने जो जुडिशरी का फैसला था उसके खिलाफ वोट दिया था और बाद में जुडिशरी ने उस फैसले को माना था। तो क्या फिर हमारे देश में भी केवल जनमत संग्रह यानी कि जनता के बीच जागरूकता लाने के बाद में जनता की राय लेना ही एकमात्र रास्ता बचा है जिसके द्वारा इस कॉलेजियम सिस्टम को इस जो मनमानी हो रही है न्यायपालिका की उसको और ये जो वकील कभी सांसद बन जाते हैं कभी मीडिया बन जाते हैं कभी मंत्री बन जाते हैं और हमेशा ही ये न्यायपालिका के तो रहते ही रहते हैं क्या उनके इशारों में खेलने दिया जाएगा?लोगों के बीच जागरूकता फैले और उसके बाद पूरे देश में एक जनमत संग्रह कराया जाए। एक सर्वे कराया जाए। अगर देश की बहुसंख्यक जनता आज की व्यवस्था से सहमत है उसे बदलना नहीं चाहती तो ऐसे ही चलने दीजिए। और अगर इस देश की जनता इसको बदलना चाहती है, इसमें सुधार चाहती है, इसे संविधान के अनुरूप लाना चाहती है तो फिर न्यायपालिका को भी उसके आगे झुकना पड़ेगा।
हम ये चाहते हैं कि ये जागरूकता ज्यादा से ज्यादा फैले। और फिर इसमें रेफरेंडम किस तरीके से हो पाएगा उस पर भी हम आगे काम करेंगे। जमीन पर जाकर लोगों से मिलना पड़ेगा। एक-एक व्यक्ति को यह समझाना पड़ेगा कि आज देश में 5 करोड़ केसेस अगर पेंडिंग है तो उसके पीछे यह न्यायपालिका की मनमानी है या फिर कपिल सिब्बल, अभिषेक मनु सिंवी, दुष्यंत दवे, प्रशांत भूषण जैसे वकीलों का भी खेल है। जिसकी वजह से आम जनता को ना न्याय मिलता है ना जमानत मिलती है और पैसे वाले बड़े से बड़ा अपराध करके भी जमानत लेकर छुट्टे घूम रहे होते हैं। आप सोचिए लालू प्रसाद यादव का जो केस है वो 90 के दशक का है और इसमें सजाएं भी हो चुकी है। लेकिन लालू प्रसाद यादव छुपे घूम रहे हैं। उनकी राजनीति भी चल रही है। उनकी पार्टी भी चल रही है। बेटा मुख्यमंत्री भी बन जाता है। लेकिन कुछ नहीं होता। वो लोअर कोर्ट से उन्हें सजा हो जाती है। हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में यह बड़े-बड़े वकील उनको आसानी से जमानत दिला देते हैं और जमानत पर रहकर उनका जो साम्राज्य है अच्छे तरीके से चलता रहता है। अभी एक केस डिसाइड हुआ है। 35 साल बाद लोअर कोर्ट से एक हिंसा हुई थी। एक झगड़ा हुआ था। एक उपद्रव हुआ था। उसके मामले में 35 लोगों को सजा हुई है। लेकिन वो 35 लोग अपनी जिंदगी तो जी चुके। 35 साल में उन्होंने बहुत कुछ आनंद ले लिए। जो कुछ करना था कर लिया। अब उन लोगों को पांचप साल की सजा हुई है। 41,000 का जुर्माना हुआ। क्या फर्क पड़ता है? क्योंकि ज्यादातर लोग उसमें से 65 से 70 साल के हो चुके हैं। कई उनमें से मर भी चुके हैं। तो जब व्यक्ति को उसके किए का दंड नहीं मिलेगा और अगर दंड मिलता है वो उसको सब कुछ भोगने के बाद मिल जाए। उस ऐश्वर्य को भोगने के बाद उस पूरी जिंदगी का आनंद लेने के बाद मिल जाए तो फिर उसका मतलब क्या रहा? ये बात सुप्रीम कोर्ट को समझ नहीं आ रही है क्योंकि उसको कुछ एक डेढ़ दर्जन वकील अपने इशारों पर चला रहे हैं। अपने तरीके से चला रहे हैं। क्योंकि जो जजेस भी है उनमें से मोस्टली जजेस वकीलों में से ही आ रहे हैं। नीचे के जो जज है वो ऊपर तक नहीं पहुंच पाते। एक केस हमने आपको बताया था फातिमा बीवी का कि वो नीचे की जो लोअर जुडिशरी है उसमें सेलेक्ट हुई थी और भारत के जो सुप्रीम कोर्ट है वहां तक पहुंची थी जज बनकर लेकिन ऐसे केसेस बहुत कम है रेयर है आज की डेट में हाई कोर्ट्स के अंदर सुप्रीम कोर्ट के अंदर जितने भी जज बैठे हैं उनमें 80% के करीब वही है जो मूल रूप से वकील रहे हैं 15- 20 साल जिन्होंने वकालत की है सीनियर वकीलों के साथ वो संपर्क में रहे हैं। उन्हीं के अंडर में वकालत की है। और वही लोग जब जाकर हाई कोर्ट में सुप्रीम कोर्ट में जज बन जाते हैं तो उन वकीलों के एहसान भी मानते हैं। आपको याद होगा अभिषेक मनु सिंह तो एक फैक्ट्री चलाया करते थे लोगों को जज बनाने की। बाद में जब वो वीडियो आउट हुआ तो उन्होंने अपनी पावर का इस्तेमाल करके सुप्रीम कोर्ट हाई कोर्ट को इस बात पर राजी कर लिया कि वो वीडियो नहीं फैलना चाहिए। वो उनका पर्सनल मैटर है। और ऐसा हुआ भी उनकी बदनामी हो। यही बात कपिल ने भी उठाई थी। कोलकाता का जब केस चल रहा था आरजी कर का और उसकी लाइव स्ट्रीमिंग के दौरान उन्होंने CJI चंद्रचूर से ये कहा था कि आप ये लाइव स्ट्रीमिंग बंद करा दीजिए। मेरी छवि खराब हो रही है। लोग मुझे उल्टा सीधा कह रहे हैं। मैं हंस रहा हूं, मैं ये कर रहा हूं। यानी कि ये लोग पारदर्शिता के भी खिलाफ हैं। ये कुछ भी अपराध करें, यह कुछ भी करें, किसी भी अपराधी का साथ दें, लेकिन इनके खिलाफ कोई बोले नहीं। इनकी चर्चा नहीं होनी चाहिए। नहीं तो यह उसके खिलाफ डिफेमेशन कर देंगे या केस में फंसा देंगे। जनता को जागने की जरूरत है और ऐसे लोगों के जो कारनामे हैं लोगों को पता होना चाहिए। न्यायपालिका का जो कुछ हो रहा है उसमें जो एक दर्जन वकील हैं उनमें सबसे बड़ा फैक्टर कपिल सिबल है।
via Blogger https://ift.tt/9FhXzT1
June 07, 2025 at 10:22AM
via Blogger https://ift.tt/x0sFWpD
June 07, 2025 at 11:13AM
via Blogger https://ift.tt/xakQeoB
June 07, 2025 at 12:13PM
via Blogger https://ift.tt/StpJelF
June 07, 2025 at 01:13PM
No comments:
Post a Comment